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ट्रायल जज अक्सर कार्रवाई से बचने के लिए निर्दोष आरोपितों को ठहराते हैं दोषी : हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट

प्रयागराज, 19 सितम्बर (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दहेज हत्या के मामले में दाखिल एक आपराधिक अपील पर आदेश पारित करते हुए कहा कि कई मामलों में ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीश ऐसे आरोपियों को दोषी ठहराते हैं, जिन्हें बरी किया जाना चाहिए। वह ऐसा केवल आपराधिक अपीलों में हाईकोर्ट की कार्रवाई से बचने के लिए करते हैं।

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ और न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिजवी की खंडपीठ ने दहेज हत्या के एक मामले में अलीगढ़ के एक सत्र न्यायाधीश के 2010 के फैसले से उत्पन्न वीरेंद्र सिंह व अन्य बनाम यूपी राज्य की आपराधिक अपीलों पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।

निचली अदालत ने आरोपितोंं को दहेज हत्या सहित प्रमुख आरोपों से बरी कर दिया था तथा उन्हें केवल आपराधिक धमकी के लिए दोषी ठहराया था। अपील पर निर्णय करते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि वर्ष 2010 में हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने निचली अदालत के न्यायाधीश को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए (महिला के पति या उसके रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना), 304-बी (दहेज हत्या), 201 (अपराध साक्ष्य को मिटाना या अपराधी को बचाने के लिए गलत सूचना देना) तथा दहेज निषेध अधिनियम के प्रावधानों के तहत आरोपों से आरोपित को बरी करने के लिए कारण बताओ नोटिस जारी किया था।

ट्रायल कोर्ट के निर्णय से सहमति जताते हुए तथा यह मानते हुए कि भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (आपराधिक धमकी-मृत्यु या गम्भीर चोट पहुंचाने की धमकी) के तहत अभियुक्त को दोषी ठहराया जाना भी अनुचित था। खंडपीठ ने तत्कालीन सत्र न्यायाधीश को नोटिस जारी करने में जल्दबाजी करने के लिए हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश की आलोचना की।

हाईकोर्ट ने कहा कि एकल न्यायाधीश ने न केवल सत्र न्यायाधीश को नोटिस जारी किया था, बल्कि यह भी निर्देश दिया था कि न्यायिक अधिकारी के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाए।

अदालत ने कहा, “उच्च न्यायालय का ऐसा आचरण निचली अदालत में न्यायिक अधिकारियों के डर के लिए जिम्मेदार है और कई मामलों में जहां आरोपी स्पष्ट रूप से बरी होने का हकदार है, दोषसिद्धि का फैसला और सजा का आदेश केवल इसलिए पारित किया जाता है, क्योंकि पीठासीन अधिकारी निर्णयों और आदेशों पर उचित रूप से विचार किए बिना उच्च न्यायालय द्वारा नोटिस और कार्रवाई जारी करने से बचना चाहते हैं।“

हाईकोर्ट की खंडपीठ ने अपने कार्यालय को न्यायिक अधिकारी की खोज करने का निर्देश दिया है, जो अब तक सेवानिवृत्त हो चुके होंगे। तथा निर्णय की एक प्रति उन्हें भेजने का निर्देश दिया, ताकि उन्हें पता चले कि उन्होंने मामले का निर्णय करने में कोई त्रुटि (धारा 506 के तहत दोषसिद्धि को छोड़कर) नहीं की है। ट्रायल जज ने पहले आरोपी को बरी करने के अपने फैसले को उचित ठहराते हुए कहा था कि उसे नोटिस केवल उसकी प्रतिष्ठा और सेवा को नुकसान पहुंचाने के लिए जारी किया गया था। हाईकोर्ट ने उनके जवाब से सहमति जताई।

मामला 2006 का है, जब कुमारी भूमिका नामक महिला की आरोपी मनोज से शादी के सात साल के भीतर ही मृत्यु हो गई थी। हालांकि पीड़िता के ससुराल वालों ने कहा कि उसकी मौत घर की छत से गिरकर हुई थी, लेकिन पीड़िता के पिता ने आरोप लगाया कि वे दहेज के लिए उसे प्रताड़ित करते थे, जिसके बाद उनके खिलाफ दहेज हत्या का मामला दर्ज किया गया।

ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोपियों को प्रमुख आरोपों से बरी किए जाने के बाद राज्य ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आरोपियों ने आईपीसी की धारा 506 के तहत अपनी सजा को भी चुनौती दी।

हाईकोर्ट ने आरोपी को बरी करने के निर्णय से सहमति व्यक्त की, क्योंकि उसे यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला कि पीड़िता के साथ उसकी मृत्यु से पहले क्रूरता की गई थी। न्यायालय ने कहा कि यदि किसी महिला की मृत्यु विवाह के सात वर्ष के भीतर असामान्य परिस्थितियों में हो जाती है तो न्यायालय केवल दोषसिद्धि और सजा का आदेश पारित नहीं कर सकता।

मौत के कारण के बारे में न्यायालय ने कहा कि मेडिकल साक्ष्य से स्पष्ट रूप से साबित होता है कि मृतका को सिर में गंभीर चोट लगी थी, क्योंकि वह फोन पर बात करते समय दुर्घटनावश लगभग 22 फीट की ऊंचाई से गिर गई थी।

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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे

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