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सामाजिक संस्थाओं के महत्व को सामने लाने वाले पर तीन अमेरिकी शोधकर्ताओं को मिला नोबेल

Nobel Prize for Development and Societies

नई दिल्ली, 14 अक्टूबर (Udaipur Kiran) ।

अर्थशास्त्र में इस बार का नोबेल पुरस्कार किसी देश की समृद्धि में सामाजिक संस्थाओं के महत्व को प्रदर्शित करने के लिए तीन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों- डारोन एसेमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन को दिया गया है। इन शोधकर्ताओं ने यह समझने में मदद की कि कानून रूप से खराब शासन वाले समाज और जनसंख्या का शोषण करने वाली संस्थाएं विकास या बेहतरी के लिए परिवर्तन उत्पन्न क्यों नहीं करती हैं। इन वैज्ञानिकों ने यह स्थापित किया कि समावेशी संस्थानों से सभी का दीर्घकालिक लाभ होता है।

आर्थिक विज्ञान में पुरस्कार समिति के अध्यक्ष जैकब स्वेन्सन कहते है कि देशों के बीच आय में व्यापक अंतर को कम करना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। पुरस्कार विजेताओं ने इसे प्राप्त करने के लिए सामाजिक संस्थानों के महत्व का प्रदर्शन किया है।

डारोन एसेमोग्लू 1967 में इस्तांबुल, तुर्किये में पैदा हुए। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस से पीएचडी की और अब वे कैम्ब्रिज के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर हैं। साइमन जॉनसन का जन्म 1963 में ब्रिटेने के शेफ़ील्ड में हुआ। उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से पीएचडी की और वहीं प्रोफेसर हैं। जेम्स ए. रॉबिन्सन का जन्म 1960 में हुआ। उन्होंने पीएचडी येल यूनिवर्सिटी, न्यू हेवन, सीटी, यूएसए से की। शिकागो विश्वविद्यालय, आईएल, यूएसए में वे प्रोफेसर हैं।

पुरस्कार के तौर पर इन्हें 11 मिलियन स्वीडिश क्रोनर ( करीब 9 करोड़ रुपये) मिलेंगे, जिन्हें पुरस्कार विजेताओं के बीच समान रूप से साझा किया जाएगा।

इन वैज्ञानिकों ने बताया कि समावेशी संस्थानों से सभी का दीर्घकालिक लाभ होता है। वहीं इससे उलट निष्कर्षकारी संस्थान सत्ता में बैठे लोगों को केवल अल्पकालिक लाभ देते हैं। इससे होता यह है कि राजनीतिक व्यवस्था जब तक चलती है तब तक चीजें नियंत्रण में रहती है। वहीं लोगों में भविष्य के आर्थिक सुधारों के उनके वादों पर भरोसा नहीं रहेता। जिससे स्थिति में कोई सुधार नहीं होता है।

इन्होंने यह भी बताया कि शक्तिशाली लोग सत्ता में बने रहना पसंद करते हैं और इस कारण वे आर्थिक सुधारों का वादा करके जनता को खुश करने की कोशिश करते हैं। लेकिन आबादी को यह विश्वास करने की संभावना नहीं है कि स्थिति सामान्य होते ही वे पुरानी व्यवस्था में वापस नहीं लौटेंगे। अंततः सत्ता हस्तांतरण और लोकतंत्र की स्थापना ही एकमात्र विकल्प बनता है।

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(Udaipur Kiran) / अनूप शर्मा

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