लखनऊ, 01 अक्टूबर (Udaipur Kiran) । ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्विद्यालय एवं विद्या भारती उच्च शिक्षा संस्थान (अवध प्रान्त) की ओर से ‘उच्च शिक्षा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के सफल क्रियान्वयन में शिक्षकों की भूमिका’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. दिनेश शर्मा, पूर्व उप मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश एवं राज्य सभा सदस्य, मौजूद थे। डॉ. दिनेश शर्मा ने कहा कि नई शिक्षा नीति -2020 के आने के बाद शिक्षा व्यवस्था में बदलाव हो रहा है। ऐसे में जो शिक्षक विद्यार्थी बनकर सीखता रहेगा, वही विद्यार्थियों के बीच सम्मान पाएगा।
डॉ. दिनेश शर्मा ने कहा कि भारत को सोने की चिड़िया और विश्व गुरु कहा जाता था, इस पर हमें गर्व है। हमें विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों था। वास्तव में भारतीय शिक्षा और अध्यापन व्यवस्था के चलते ऐसा था। शिक्षा की वजह से ही विश्व में भारत की संप्रभुता थी। समय के साथ तमाम आक्रांता हमारे देश में आए। उन्होंने यहां की ज्ञान परंपरा को नष्ट किया। नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में लगाई गई आग कई दिनों तक धधकती रही। गुलामी के बाद देश की शिक्षण व्यवस्था अंग्रेजी प्रणाली पर ही चलती रही। कहने को वर्ष 1986 में शिक्षा नीति बनी पर उसमें भारतीकरण के बजाय अंग्रेजी का बोलबाला था। नई शिक्षा नीति-2020 में इसमें सुधार किया गया है। भारतीय भाषाओं के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा को इससे जोड़ा गया है।
इससे पहले प्रो. जय शंकर प्रसाद पाण्डेय, क्षेत्र संयोजक, विद्याभारती उच्च शिक्षा संस्थान, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो. एन. के तनेजा, राष्ट्रीय महामंत्री, विद्याभारती उच्च शिक्षा संस्थान, ने कहा कि नई शिक्षा नीति-2020 आने से पहले हम शिक्षण की भारतीय संस्कृति को भूल चुके थे। भारत में शिक्षा का व्यापक अर्थ है। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली में जहां अर्थ को महत्व दिया गया है तो वहीं भारतीय शिक्षा प्रणाली में इसका अर्थ व्यापक है। यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों को शिक्षा में समाहित किया गया है। इसी अवधारणा पर नई शिक्षा नीति की नींव डाली गई है। नई शिक्षा नीति को इस तरह से तैयार किया गया है कि इससे विद्यार्थियों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव हो।
संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र, सदस्य सचिव, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, ने कहा कि प्राचीन काल से ऋषि ऋण की परंपरा रही है। इसका मतलब है कि शिक्षा के बाद गुरुदक्षिणा के रूप में आश्रम को कुछ वापस देना। शिक्षकों को भी इसका पालन करना चाहिए। शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब उनकी बारी समाज को कुछ देने की है। शोध और नवाचार के माध्यम से शिक्षक ऐसा कर सकते हैं। इसके लिए भाषा की नहीं ज्ञान और अभ्यास की जरूरत है। शोध और नवाचार की कोई भाषा नहीं होती है।
(Udaipur Kiran) / उपेन्द्र नाथ राय