
पानीपत, 1 अप्रैल (Udaipur Kiran) । पानीपत स्थित द्वारा हरि मंदिर में चल रही कथा में स्वामी दयानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि शिष्य को बिना लालच के गुरू की सेवा करनी चाहिए, गुरू भगवान से मिलने का द्वार है, इसलिए गुरु को गुरूद्वारा भी कहा गया है,लेकिन हमें अधूरे गुरु से बचना चाहिए। अगर शिष्य को अधूरा गुरू मिल गया तो, ऐसा न सोचें कि शिष्य ही नरक में जाता है, बल्कि अधूरा गुरू भी नरक में जाता है। अगर गुरू शिष्य के धन पर जीवन यापन करता है तो भी समझ लेना वह गुरु नहीं संत नहीं है, अपितु वह भीखमंगा है जो शिष्यों से भीख मांग कर खा रहा है।
पूर्ण गुरु तो परमात्मा का स्वरूप होता है। जो दाता होता है, जो देना जनता है, लेना नहीं रामायण में भी श्री राम को उनके गुरु एक बीमार कुत्ते को दिखाते हुए कहते है कि यह पिछले जन्मः का अधूरा गुरु है और जो इसके घाव में अनगिनत कीड़े पड़े हुए हैं, ये इस गुरु के शिष्य है । जिस कारण गुरु अधोगति को प्राप्त हुआ लेकिन शिष्यों को भी कीड़ा बनना पड़ा, जो इस जन्म में गुरु के घाव को खाकर गुरु से अपना ऋण वसूल रहे हैं।
है। ऐसा न सोचें कि शिष्य ही नरक में जाता है, गुरू भी नरक में जाता है। अगर गुरू शिष्य से धन तो लेता है लेकिन उसे परमात्मा तक पहुँचने का उपाय नहीं बताता तो वह घोर नरक में जाता है।
—————
(Udaipur Kiran) / अनिल वर्मा
