जम्मू, 15 सितंबर (Udaipur Kiran) । साहिब बंदगी के सद्गुरु श्री मधुपरमहंस जी महाराज ने रविवार काे रखबंधु, जम्मू में अपने प्रवचनों की अमृत वर्षा से संगत को निहाल करते हुए कहा कि तीर्थ में जाने से एक फल की प्राप्ति होती है, लेकिन अगर संत मिल जाएँ तो चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। पर अगर संत सद्गुरु मिल जाएँ तो अनेक फलों की प्राप्ति होती है। साहिब जी ने कहा कि यह संसार कर्म भूमि है। समस्त जीवों में एक ही आत्मा है। आप किसी भी जीव को न मारें। इसलिए मांसाहार घोर पाप है।
हमारा धर्म उस सर्वशक्तिमान की सत्ता को स्थापित करता है। सत्य और अहिंसा दो सिद्धांत हैं इसके। सत्य के भी आठ अंग हैं और अहिंसा के भी। अहिंसा में किसी भी जीव को मन, वचन और कर्म से कष्ट नहीं देना है। यह महापाप है। हम जो जो कर्म कर रहे हैं, सब अंतःकरण में पहुँचते हैं। और कर्मानुकूल बुद्धि बनेगी। जो हमेशा पाप कर्म करते हैं, उनका अंतःकरण और बुद्धि कभी उस तरफ नहीं जायेगी। पाप कर्मों से जिसकी बुद्धि मलिन हो जाती है, उसे सपने में भी परमात्मा नजर नहीं आता है। वो कभी शुभ कर्मों की तरफ नहीं जायेगा। हमारे पूर्वज पाप नहीं करते थे। पर आज हम पाश्चात्य संस्कृति की ओर चले गये हैं। वहाँ सेक्स पार्टनर बदलते रहते हैं, पर हमारी संस्कृति इसे कभी भी मंजूर नहीं करती है। जो आप भोजन कर रहे हैं, उसका असर आपकी बुद्धि पर पड़ेगा। ठीक, ऐसे ही जो आप कर्म कर रहे हैं, उसका असर आपके अंतःकरण पर पड़ेगा।
पाप की सात धाराएँ हैं। पहली पाप की धारा है-झूठ। झूठ सभी अपराधों को जन्म देगा। इसलिए साहिब ने कहा कि सत्य के बराबर कोई तप नहीं है और झूठ के बराबर कोई पाप नहीं है। जब इंसान नशा करता है कि कोशिकाएँ नशे वाली बन जाती हैं, गुस्सा करता है तो कोशिकाएँ गुस्से वाली बन जाती हैं। हमेशा गुस्सा ही करता रहता है। इस तरह सुमिरन करने वाले के अन्दर एक ताकत आ जाती है। साहिब कह रहे हैं कि जप, तप, संयम, साधना सब सुमिरन से मिल जाते हैं।
दूसरा पाप का द्वार है-हिंसा। इसलिए धर्म कह रहा है कि किसी भी प्राणी को नहीं मारना। पहले अच्छा इंसान बनना है, तब हम आगे जा सकते हैं। इस तरह अहिंसा के भी आठ अंग हैं। मन, वचन, कर्म से किसी को तकलीफ नहीं देनी है। किसी से ईर्ष्या नहीं करनी है, बदले की भावना नहीं रखना, किसी का नुकसान नहीं चाहना, किसी का अपमान नहीं करना। शील बनना।
फिर कहा कि नशा नहीं करना। जितने भी अमल पदार्थ हैं, सबको त्यागना है। फिर कहा कि परस्त्रीगमन नहीं करना। यह नरक का द्वार है। यह महापाप है। रावण के दस सिर परनारी का कारण ही गये। फिर चोरी नहीं करना। चोरी नरक का द्वार है। फिर जुआ नहीं खेलना। यह नरक का द्वार है। दुःशासन और दुर्योधन की जुर्रत थी कि द्रौपदी का चीर हरण करता। पर जुआ के कारण वो हार चुके थे। इसलिए हुआ। फिर धोखाधड़ी नहीं करना। पहले अपराध अनपढ़ लोग करते थे, जाहिल लोग करते थे, अभी पढ़े-लिखे लोग कर रहे हैं। आप फँसना नहीं। धोखाधड़ी आजकल व्यापार हो गया है।
ये सात नरक के द्वार हैं। आप इनसे बचना। यह आपपर है कि आप कहाँ जाना चाहते हैं। शास्त्रों में साफ साफ बताया है कि किस किस पाप से कहाँ कहाँ जायेंगे। नरकों में अलग अलग अपराध के लिए अलग अलग सजा है। जो पराई स्त्री की तरफ जाता है, उसे लोहे की स्त्री गर्म करवाकर यमराज गले लगवाते हैं। जो किसी को डराता है, उसके वहाँ हाथ काट दिये जाते हैं। मनुष्य विचारशील है। इसे हर काम सोच-विचारकर करना है। शुद्ध भोजन करना। शुद्ध कमाई का भोजन खाना। नहीं तो बुद्धि कुंठित हो जायेगी। जो हमेशा पाप कर्म करने वाले हैं, उसको आत्मज्ञान का संदेश कभी समझ नहीं आता है।
(Udaipur Kiran) / राहुल शर्मा