भोपाल, 5 जनवरी (Udaipur Kiran) । मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय में नृत्य, गायन एवं वादन पर केंद्रित गतिविधि संभावना का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें रविवार को गंगाराम धुर्वे एवं साथी-डिण्डोरी द्वारा गोण्ड जनजातीय गुदुमबाजा नृत्य, प्रज्ञा गढ़वाल एवं साथी-उज्जैन द्वारा मटकी नृत्य, सम्प्रिया पूजा एवं साथी-दुर्ग द्वारा पण्डवानी गायन की प्रस्तुति दी गई। गतिविधि की शुरूआत वरिष्ठ कलाकार, एसएनए सम्मान प्राप्त सीताराम सिंह द्वारा कलाकार के स्वागत से की गई। गतिविधि में सम्प्रिया पूजा एवं साथी-दुर्ग द्वारा पण्डवानी गायन में दुशासन एवं दुर्योधन वध दश्य को प्रस्तुत किया।
महान संस्कृत क्लेसिक महाभारत्य की कथा का छत्तीसगढ़ी लोकरूप पंडवानी कहलाता है। पंडवानी का अर्थ है पाण्डवों की कथा। भारतीय आख्यान की परम्परा का सर्वश्रेष्ठ जब छत्तीसगढ़ी पंडवानी में रूप लेता है तो वह हमारे बीच का लगता है, हमारी स्मृति का एक अंग, किन्तु पंडवानी केवल कथावाचन मात्र नहीं है। इसमें पंडवानी गायक हाथ, चेहरे और आँखों की संवेदनशील चाक्षुष भंगिमाओं के रूप में, अभिनय द्वारा अद्वितीय नाटकीयता का सृजन करता है। महाभारत की विविध और विशाल दुनिया हमारे सामने एक नए सिरे से प्रत्यक्ष होने लगती है, हमारी जातीय स्मृति के एक अटूट हिस्से की तरह। मात्र इकतारा के साथ पंडवानी गायक की शारीरिक गतिशीलता मंच पर महाभारत की कथा के पूरे आन्तरिक तनाव को उपस्थित कर देती है। पंडवानी में किस्सागाई और गायकी तथा अभिनय और संगीत की चमत्कारिक समग्रता है। पंडवानी गायकी के बीच टेक गतिविधियों को एकत्र करने और उसे मूर्त करने के लिए होती है।
अगले क्रम में गंगाराम धुर्वे एवं साथी-डिण्डोरी द्वारा गोण्ड जनजातीय गुदुमबाजा नृत्य प्रस्तुत किया। गुदुमबाजा नृत्य गोण्ड जनजाति की उपजाति ढुलिया का पारम्परिक नृत्य है। समुदाय में गुदुम वाद्य वादन की सुदीर्घ परम्परा है। विशेषकर विवाह एवं अन्य अनुष्ठानिक अवसरों पर इस समुदाय के कलाकारों को मांगलिक वादन के लिए अनिवार्य रूप से आमंत्रित किया जाता है। इस नृत्य में गुदुम, डफ, मंजीरा, टिमकी आदि वाद्यों के साथ शहनाई के माध्यम से गोण्ड कर्मा और सैला गीतों की धुनों पर वादन एवं रंगीन वेश-भूषा और कमर में गुदुम बांधकर लय और ताल के साथ, विभिन्न मुद्राओं में नृत्य किया जाता है।
इसके बाद प्रज्ञा गढ़वाल एवं साथी-उज्जैन द्वारा मटकी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। विभिन्न अवसरों पर मालवा के गाँव की महिलाएँ मटकी नाच करती है। ढोल या ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएं नृत्य करती है। प्रारम्भ में एक ही महिला नाचती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएं अपनी परम्परागत मालवी वेशभूषा में चेहरे पर घूँघट डाले नृत्य करती हैं। नाचने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएँ समूह में कड़ी को दोहराती है। नृत्य में हाथ और पैरों में संचालन दर्शनीय होता है। नृत्य के केंद्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डण्डे से बजाया जाता जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते हैं।
(Udaipur Kiran) / उम्मेद सिंह रावत