Madhya Pradesh

स्वयं का निर्माण करने वाले राष्ट्र निर्माण करते हैं : मुकुल कानिटकर

दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025
दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025
दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025

भोपाल, 01 मार्च (Udaipur Kiran) । प्रसिद्ध विचारक और चिंतक मुकुल कानिटकर ने कहा कि शोध का अर्थ केवल खोजना नहीं बल्कि शुद्ध करना है। एक शोधार्थी को पहले कर्ण शुद्धि, चित्त शुद्धि और वाक् शुद्धि प्राप्त करनी होती है। शोध केवल जानकारी इकट्ठा करने का माध्यम नहीं बल्कि आत्मशुद्धि और आत्मविकास की प्रक्रिया है। यही कारण है कि स्वयं का निर्माण करने वाला व्यक्ति ही राष्ट्र के निर्माण में योगदान दे सकता है। व्यक्ति निर्माण ही राष्ट्र निर्माण का आधार है।

कानिटकर शनिवार को भोपाल के मेपकास्ट परिसर में दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025 के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने बताया कि जिस व्यक्ति के जीवन में शोध का स्थान होता है, वह स्वयं में सुधार लाता है। अध्यापन और अनुसंधान केवल तकनीकी ज्ञान तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि बौद्धिक क्षमता और इंद्रियों के परिष्कार का माध्यम भी होने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में केवल विश्लेषण सिखाया जाता है, जबकि संश्लेषण और संस्कार पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसी कारण समाज में भेदभाव और विभाजन की मानसिकता विकसित होती है।

उन्होंने ‘भारत के पुनरुत्थान के लिए अनुसंधान’ विषय पर बीज वक्तव्य देते हुए कहा कि ज्ञान और आनंद परस्पर जुड़े हुए हैं। बिना आनंद के ज्ञान अधूरा है और बिना ज्ञान के आनंद की अनुभूति भी नहीं हो सकती। यह संवाद केवल चर्चा का माध्यम नहीं बल्कि भारत के विकास और पुनरुत्थान का संकल्प है, जिसमें मित्रता और विचार-विनिमय को प्राथमिकता दी गई है। यह केवल भारत के नए निर्माण की बात नहीं बल्कि भारत की संकल्प शक्ति और उसकी नीतियों के उत्थान का समय है।

उन्होंने स्पष्ट किया कि सुनने की क्षमता सभी के लिए समान होती है, लेकिन ग्रहण करने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की रुचि और क्षमता पर निर्भर करती है। ज्ञानेंद्रियों की क्षमता के अनुरूप ही व्यक्ति ज्ञान अर्जित करता है। समाज का संचालन केवल प्रतिस्पर्धा या प्राकृतिक चयन के सिद्धांत पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह परस्पर सहयोग से संचालित होता है। इस संदर्भ में भारतीय संस्कृति और मूल्यों का विशेष महत्व है।

कानिटकर ने मौलिकता के महत्व पर चर्चा करते हुए कहा कि नकल करना स्वयं का अपमान करना है। जो व्यक्ति स्वयं की प्रज्ञा पर विश्वास नहीं करता, वही कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सहारा लेता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता गणनाओं और सीमित कार्यों के लिए सहायक हो सकती है, लेकिन अनंत की खोज केवल मानव मस्तिष्क कर सकता है। मौलिकता ही व्यक्ति को उसका वास्तविक मूल्य प्रदान करती है।

उन्होंने परिवार और समाज की संरचना पर विचार रखते हुए कहा कि मानसिक शुद्धि का मूल परिवार के विस्तार में है। समाज में पुरुष या महिला के उत्थान की बजाय परिवार की जागरूकता और प्रबोधन की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि द्वंद्व का समाधान केवल ज्ञान के माध्यम से किया जा सकता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रक्रिया को ही मूल माना गया है, और शोध का अंतिम लक्ष्य तपस्वी बनाना तथा तप करना है। भारत के पुनरुत्थान की प्रक्रिया में इन विचारों की विशेष भूमिका हो सकती है। यह विचार केवल सिद्धांतों तक सीमित नहीं बल्कि एक क्रियाशील योजना का हिस्सा हैं, जो भारत को सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से सशक्त बनाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

राष्ट्र प्रथम की भावना ही श्रेष्ठ : इंदर सिंह परमार

सत्र के मुख्य अतिथि उच्च शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार ने कहा कि हमारे धर्म में विज्ञान है, अध्यात्म में विज्ञान है, ग्रंथ में विज्ञान है भारतीय परम्परा में भी विज्ञान है क्योंकि कोई भी परम्परा यदि प्राचीन काल से सतत् प्रचलित है, तो उसमें वैज्ञानिकता अवश्य होंगी, वह लिखित न हो यह हो सकता है क्योंकि हमारे यहाँ वाचिक परम्परा है। उन्होंने कहा कि धर्म और अध्यात्म कों विज्ञान से अलग नहीं कर सकते है, क्योंकि इसका उद्भव इसी से हुआ। हमारा भाव केवल मनुष्य से ही संवाद का नहीं, अपितु पर्यावरण के साथ भी संवेदना का है।

वर्तमान समाज में व्याप्त विसंगतियों पर उन्होंने कहा कि जो हमको कुछ देता है उसके साथ श्रद्धा के साथ कृतज्ञ रहना यह हमारी भारतीय परम्परा है। लेकिन कुछ लोग इसको धूमिल करने का दुस्साहस करते है। हमारे यहाँ नदियों कों माँ कहकर पूजा जाता है। माँ गंगा, माँ नर्मदा हमारे जीवन दायिनी है। उन्होंने भारतीयता के तत्वबोध को आलोकित करते हुए कहा कि जिनकी सभ्यता और संस्कार में कृतज्ञता का भाव नहीं है वह सूर्य नमस्कार का विरोध करते है। हमारा दृष्टिकोण अध्यात्म पर आधारित है। अभी भी बहुत लोगों में अपनी लोक परम्परा पर विश्वास है श्रद्धा तो है लेकिन अपनी दृष्टि के प्रति वैज्ञानिकता की कमी है इसे सशक्त करना इस शोध समागम का हिस्सा हो। भारत केंद्रित विचार पर आगे बढ़े यहीं हमारा संकल्प है ताकी हम अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी तक अपने सेनानियों के देखे सपनों को पूर्ण करें।

प्रारंभ में शोध संस्थान के निदेशक डॉ मुकेश कुमार मिश्रा ने समागम की भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह समागम भारत केंद्रित शोध के लिए सेतु का कार्य करेगा। देश के लगभग सभी राज्यों से इसमें शोधार्थी, प्राध्यापक भाग ले रहे हैं। उन्होंने आह्वान किया कि शोध में समावेशी दृष्टि विकसित की जाना चाहिए। देश की प्रमुख समस्याओं के समाधान के लिए भी शोध कार्य किया जाना चाहिए। एनआईटीटीटीआर के निदेशक प्रो चंद्रचारु त्रिपाठी ने भी संबोधित किया। मेपकास्ट के महानिदेशक डॉ. अनिल कोठारी ने भारतीय ज्ञान परंपरा में शोध की कमी पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि पर्यावरण के लिए भारतीय दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है। इंटरमीडिएट फास्टिंग पर कार्य के लिए विदेशी व्यक्ति को नोबेल प्राइज मिला, लेकिन यह हमारे ज्ञान परंपरा में निहित है। उद्घाटन सत्र का संचालन प्रो. (डॉ.) अल्पना त्रिवेदी गिरि ने किया एवं उच्च शिक्षा म.प्र. शासन के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी प्रो. (डॉ.) धीरेंद्र शुक्ल ने आभार माना।

(Udaipur Kiran) तोमर

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