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इतिहास के पन्नों में खो गये महिनगांव और सिंघिया एस्टेट

इतिहास के पन्नों में खो गये महिनगांव और सिंघिया एस्टेट

किशनगंज,15जुलाई (Udaipur Kiran) । जिले के ठाकुरगंज के चुरली एस्टेट की तरह ही किशनगंज के महिनगांव का इतिहास भी सदियों पुराना है लेकिन आज यह इतिहास ओझल हो चुका है। महिनगांव एक एस्टेट के रूप में विकसित हुआ था। फिलहाल, करीब साढ़े चार हजार लोग यहां रह रहे हैं। महिनगांव एस्टेट को 18वीं सदी में बसाया गया था। तब पूर्णिया के नवाब शौकत जंग थे, जो मुर्शिदाबाद के अलीवर्दी खान के द्वारा पूर्णिया डिवीजन के गवर्नर बनाए गए थे। यह बात 18वीं सदी के शुरू की है जब बंगाल की सल्तनत ने बिहार, ओडिशा और बाकी बंगाल के अंदरूनी इलाकों में अपने हुकुमती नुमायंदों को भेजना शुरू किया।

बंगाल सल्तनत के एहम फौजदारों में से एक पनाऊल्लाह महिनगांव आए, जो बाद में दीवान पनाऊल्लाह कहलाये। दीवान पनाऊल्लाह ने महिनगांव एस्टेट बसाया। वह, वहां के ज़मींदार बने और गांव में एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया, जिसकी आकृति भारत-अफगान इमारतों जैसी है। महिनगांव एस्टेट में आज पुरानी इमारतों में बस वही मस्जिद बची है। दीवान पनाउल्लाह और उनके पुश्त में आने वाले बाकी दीवानों की पुरानी इमारतें या तो गिर गयीं या उन खस्ताहाल इमारतों को उनके रिश्तेदारों ने गिराकर नए सिरे से मकान बनवा लिया।

पेशे से किसान सफिर ने सोमवार को जानकारी देते हुए बताया कि अंग्रेज़ों के आने के बाद इस एस्टेट की ज़मींदारी और बढ़ा दी गई थी। सफिर के बड़े भाई मो. सैफुल्लाह ने बताया कि महिनगांव एस्टेट के पहले दीवान पनाऊल्लाह के परपोते अहमदुल्ला यानि उनके पिता दीवान अहमदुल्ला इस एस्टेट के आखिरी जमींदार थे। महिनगांव एस्टेट का हिसाब किताब पूर्णिया के नवाब शौकत जंग के महल में जाता था। शौकत जंग पूर्णिया डिवीजन में मुर्शिदाबाद के आलमपनाह अलीवर्दी खान के नुमाइंदा थे।अलीवर्दी ख़ान के जीवनकाल में वह अच्छे ओहदे पर रहे।

पूर्णिया के नवाब शौकत जंग नवाब सिराजुद्दौला के मौसेरे भाई और नवाब अलीवर्दी खान के नाती थे। अलीवर्दी खान की मौत के बाद उनकी बेटी घसेटी बेगम शौकत जंग को सिराजुद्दौला के खिलाफ़ बंगाल और ओडिशा की गद्दी का दावा करने के लिए उकसाया। नवाब शौकत जंग ने कुछ ऐसा ही किया। उन्होंने एक पत्र लिखकर नवाब सिराजुद्दौला को कहा कि अब से सूबे का आलमपनाह वही हैं। यही नहीं, नवाब शौकत जंग ने सिराजुद्दौला को ढाका जाकर उनका नुमायंदा बनने का हुक्म दे दिया। पत्र पढ़कर गुस्से से आगबबुला सिराजुद्दौला ने फौरन अपने सैनिकों को पूर्णिया के नवाब की तरफ़ रवाना कर दिया। सिराजुद्दौला की सैन्यशक्ति के सामने पूर्णिया के नवाब शौकत जंग को हार मिली और इसी लड़ाई में उनकी मौत हो गई।

महिनगांव एस्टेट उस समय से पहले शौकत जंग के अंतर्गत सारे टैक्स की वसूली करता था। शौकत जंग की मौत के एक साल बाद ही सिराजुद्दौला को प्लासी की लड़ाई में अंग्रेज़ों से हार मिली और उसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने नयी तरह से जमींदारी की शुरूआत की। 1952 के भूमि निपटान अधिनियम के लागू होने के बाद भारत सरकार ने सारे एस्टेट्स से अधिकतर जमीन ले ली थी। महिनगांव एस्टेट में भी इस अधिनियम के लागू होते ही जमीनों को भारत सरकार को सौंपा गया। मो. सैफुल्ला के अनुसार कुछ प्रतिशत जमीन उनके पिता और महिनगांव के आखिरी जमींदार दीवान अशहदुल्लाह को सौंपी गई। सरकार ने दीवान अशहदुल्लाह के नाम मुआवज़े के तौर पर बॉन्ड दिया था।

मो. सैफुल्ला ने हमें बताया कि 1975 की सीलिंग एक्ट में यह आदेश दिया गया कि जमींदारों के परिवारों में हर एक परिवार को 30 एकड़ या उससे कम जमीन दी जाएगी। 80 के दशक तक दीवान अशहदुल्लाह और 1924 में एमपी रहे उनके बड़े भाई दीवान अशजदुल्लाह के परिवार को मुआवज़े के तौर पर कुछ पेंशन मिला करता था। महिनगांव स्टेट में कमोबेश ढाई सौ साल पुरानी मस्जिद है, जो आज भी 18वीं सदी के आर्किटेक्चर की झलक देती है। मो. सैफुल्लाह ने हमें औरंगजेब के जमाने का एक कुरान दिखाया। हाथ से लिखे इस कुरान के आयात अरबी और इसका अनुवाद फारसी में लिखा गया है। कुछ लोग इस कुरान को औरंगजेब के हाथ का लिखा हुआ मानते हैं।

इंटरनेट के इस ज़माने में जब हर जानकारी बस एक क्लिक की दूरी पर है, महिनगांव जैसे दर्जनों ऐतिहासिक निशान मिटते जा रहे हैं। दीवान पनाउल्लाह के वंशजों के लोगों के पास एस्टेट से जुड़ा कोई कागज़ात नहीं बचा है। महिनगांव किशनगंज के शोरशराबे से केवल 8 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन इसका ज़िक्र न किसी गूगल पेज पर मिलता है ना किसी डिजिटल अखबार के पन्ने पर।

(Udaipur Kiran) / धर्मेन्द्र सिंह / चंदा कुमारी

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