झाबुआ, 16 सितंबर (Udaipur Kiran) । भगवान् श्री कृष्ण रूपी परमात्मतत्व को प्राप्त करने के लिए जीव को गोपी बनना होगा तभी कृष्ण की प्राप्ति संभव है, किंतु गोपी का केवल बाहरी स्वरूप धारण करने से कृष्ण प्राप्ति संभव नहीं, वरन् अपनी चित्त वृत्तियों को गोपीमय बनाना होगा। कृष्ण तत्व की प्राप्ति के लिए उस भावजगत् में जाना होगा, जहां स्व के लिए कोई स्थान नहीं है। बिना अपने को मिटाए गोपी भाव की प्राप्ति संभव नहीं।
उपरोक्त कथन श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में गोपियों की भगवान् श्री कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम, समर्पण, निष्ठा एवं समर्पण और गोपी गीत प्रसंग के उल्लेख के दौरान डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा ने व्यासपीठ से व्यक्त किए। शर्मा सोमवार को जिले के थान्दला में श्रीमद्भागवत भक्ति पर्व के अन्तर्गत आयोजित नौ दिवसीय श्रीमद्भागवत सप्ताह महोत्सव के पांचवे दिवस स्थानीय श्रीलक्ष्मीनारायण मंदिर सभागार में कथावाचन कर रहे थे। भागवत सप्ताह भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष अष्टमी से आरम्भ हुआ था। अष्टमी को भागवत महात्म्य के वाचन बाद कथा आरंभ हुई, जो कि आज सोमवार को पांचवें दिन में प्रवेश कर गई।
डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा ने कथा प्रसंग में गोपियों के श्री कृष्ण के प्रति दिव्य प्रेम का उल्लेख करते हुए कहा कि ब्रज गोपांगनाएं महाभागा हैं, जिन्हें इस शरीर मे ही कृष्ण तत्व की प्राप्ति हो गई थी। भगवान् श्री कृष्ण प्रेम स्वरूप हैं, तो गोपियां उस प्रेम की पराकाष्ठा हैं। गोपियों का प्रेम अलौकिक है, वे कृष्ण तद्गत प्राणा हैं, तो श्री कृष्ण हैं , अपनी ही महिमा में स्थित प्रेमसिंधु, जिन्होंने व्रज सुंदरियों को अपने आप को ही दे दिया था। वे गोपीजनवल्लभ है, प्रेमास्पद हैं, व्रजवासी है, गोपी जनों के प्राणाधार हैं, सर्वस्व हैं, ओर चूंकि गोपकुमारिकाओं का निवास तो व्रज में ही है, इस हेतु श्रीकृष्ण व्रज को छोड़कर कहीं भी जाते ही नही। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा भी हैं कि वृंदावनम् परित्यज्य पादमेकं न गच्छति, क्योकि श्री वृन्दावन धाम ही गोपाङ्गनाओँ का नित्य निवास स्थान है, ओर जहाँ गोपियाँ है, वहीँ भगवान् श्री कृष्ण भी विराजते हैं। वे प्रभु एक पल भी उनसे विलग हो ही नहीं सकते। किन्तु कोई यदि यह कहे कि श्री कृष्ण व्रज गोपियों को ही क्यो इतना प्रेम करते है ? तो इसका उत्तर यही है कि गोपियों ने अपनी समस्त चित्त वृत्तियों को कृष्ण मय बना दिया था। उन महाभागा गोपांगनाओं ने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था। उनका अपना ओर अपने लिए कहीं कुछ भी शेष बचा ही नहीं था। ये वही श्रीमद्गोपकुमारिकाएं थीं, जिन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्म प्राप्ति या ब्रह्म सुख का भी परित्याग कर दिया था. हमारे तो सर्वस्व श्री कृष्ण है, हम किसी ब्रह्म को पाना तो दूर, जानना भी नही चाहती। वे उद्धवजी को कहती है
स्याम तन, स्याम मन, स्याम है हमारो धन,
आठों जाम ऊधो हमे स्याम ही सों काम है।
भगवान् श्री कृष्ण गोपियों के प्राण हैं, और गोपकुमारिकाएँ श्री भगवान् की प्रेयसी हैं, उनकी नित्य सहचरी हैं. वे अपने प्रेमास्पद प्रभु की नित्य दासियाँ, सेविकाएँ ही बनी रहना चाहती हैं ओर प्रभु उनके प्रेमी, प्रियतम, प्रेमास्पद। भगवान् श्री कृष्ण उन वृज बालाओं के एकमात्र स्वामी, सखा, और जीवन सर्वस्व हैं, वे उनके प्रियतम हैं, स्वामी हैं श्रीकृष्ण गोपिजनवल्लभ हैं। भगवान् श्री कृष्ण के अतिरिक्त गोपांगनाओं की अपनी कोई चाहना ही नहीं थी, उनका अपने में अपना कुछ था ही नहीं, यहां तक की उनके प्राण भी कृष्ण के लिए ही थे, कृष्ण वियोग में भी शरीर से प्राण नहीं निकले, बस इसी लिए कि प्रभु आएंगे तो हमें देखकर उन्हें प्रसन्नता होगी, जबकि वे यह नहीं जानती कि आखिर प्रभु कब आएंगे, बस एक ही विश्वास है कि वो आएंगे। उनकी सारी चेष्टाएं केवल श्री कृष्ण के लिए ही थी।
आज कथा मे कंस का अत्याचार, भगवान् श्री कृष्ण का मथुरा गमन, धनुष भंग एवं कुब्जा दासी पर भगवान् की कृपा का वर्णन किया गया। शर्मा ने कहा कि भगवान् श्री कृष्ण का अवतरण केवल दुष्ट प्रवृत्तियों के विनाश के लिए ही नहीं हुआ था, बल्कि अपने प्रेमी जनों को प्रेमानंद प्रदान करना भी एक हेतु था।
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(Udaipur Kiran) / उमेश चंद्र शर्मा