गोयल हॉस्पिटल से जुड़े मामले में हाईकोर्ट का फैसला: पैथोलॉजिकल रिपोर्ट में जालसाजी के आरोपों के मामले में डॉक्टरों को किया दोषमुक्त
जोधपुर, 7 जनवरी (Udaipur Kiran) । राजस्थान उच्च न्यायालय ने जोधपुर के गोयल हॉस्पिटल से जुड़े मामले में ट्रायल कोर्ट के प्रसंज्ञान लेने पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि चिकित्सा-कानूनी मामलों में न केवल प्रतिष्ठा बल्कि स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों में जनता का विश्वास भी शामिल है। ऐसे में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अपरिपक्व अनुमानों ने पेशेवरों को अनावश्यक रूप से कलंकित किया है। इसलिए न्यायालयों को संयमित होना चाहिए और इस धारा के दुरुपयोग को रोकने के साथ व्यक्तियों की प्रतिष्ठा और कानूनी व चिकित्सा प्रणालियों दोनों में जनता के विश्वास को मजबूत करने के लिए विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर आगे बढऩा चाहिए।
हाईकोर्ट जस्टिस फरजंद अली ने प्रकरण में दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कहा कि मेडिको-लीगल मामलों में, जहां अक्सर दांव पर सिर्फ प्रतिष्ठा ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों में सार्वजनिक विश्वास भी शामिल होता है। वहां अनुमानात्मक तर्क के परिणाम बहुत ज्यादा होते हैं। न्यायालयों को ऐसे मामलों में सामान्य अनुमान के सिद्धांत को लागू करने से बचना चाहिए, जब तक कि आरोपों को पुष्ट करने के लिए स्पष्ट, वैज्ञानिक और कानूनी रूप से स्वीकार्य सबूत पेश न किए जाएं।
दरअसल नंदलाल व्यास की ओर से एक मामला इस बात का दर्ज करवाया गया था कि उनके जीजा को एस्कॉर्ट्स गोयल हार्ट सेंटर जोधपुर में भर्ती कराया गया था, जहां उनकी मृत्यु हो गई। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उन्हें जो पैथोलॉजी रिपोर्ट दी गई, उसमें हस्ताक्षरों में विसंगति थी, जिससे पता चलता है कि अस्पताल प्रशासन ने इलाज करने वाले डॉक्टर के साथ मिलीभगत की और फर्जी पैथोलॉजिकल रिपोर्ट के आधार पर झूठे बिल बनाए। आरोप लगाया गया कि यह जानते हुए भी कि मेडिकल रिपोर्ट झूठी थी, डॉक्टरों ने गलत चिकित्सा उपचार निर्धारित किया जो मरीज के लिए घातक साबित हुआ। इस केस पर निचली अदालत ने प्रसंज्ञान लिया, जिसके खिलाफ आरोपित चिकित्सक और गोयल अस्पताल प्रबंधन ने हाईकोर्ट में अपील की थी। मामले की सुनवाई करते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय की जोधपुर पीठ ने इस बात पर जोर दिया है कि डॉक्टरों/अस्पताल प्रशासन से संबंधित मामलों में फर्जी पैथोलॉजिकल रिपोर्ट के आरोपों में संज्ञान लेने से पहले सावधानीपूर्वक न्यायिक जांच की आवश्यकता होती है, खासकर तब जब डॉक्टर ने हस्ताक्षर की प्रामाणिकता का खंडन नहीं किया हो। हाईकोर्ट ने कहा कि चिकित्सा-कानूनी मामलों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अनुमान लगाने का जोखिम बहुत अधिक है और इसलिए ऐसे मामलों में न्यायालय को सामान्य अनुमान के सिद्धांत को लागू करने से बचना चाहिए। जब तक कि आरोपों को प्रमाणित करने के लिए स्पष्ट, वैज्ञानिक और कानूनी रूप से स्वीकार्य साक्ष्य उपलब्ध न हों। यह धारा 114 निर्धारित करती है कि न्यायालय किसी ऐसे तथ्य के अस्तित्व का अनुमान लगा सकते हैं, जो घटनाओं के सामान्य कारण, मानवीय आचरण और सार्वजनिक और निजी व्यवसाय के प्रकाश में घटित होने की संभावना है।
(Udaipur Kiran) / सतीश