उदयपुर, 20 दिसम्बर (Udaipur Kiran) । पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा 21 से 30 दिसंबर तक होने वाले शिल्पग्राम महोत्सव में भील जनजाति का लोकानुष्ठान ‘गवरी’ मेलार्थियों के लिए विशेष आकर्षण होगा। ‘गवरी’ प्रकृति के शृंगार को यथारूप रखने का सुन्दर नृत्यानुष्ठान है। यह लोकानुष्ठान शिव के तांडव और मां गौरी की आराधना से जुड़ा है।
केंद्र निदेशक फुरकान खान ने बताया कि इस बार ‘लोक के रंग-लोक के संग’ थीम पर केंद्रित शिल्पग्राम महोत्सव के दौरान शिल्पग्राम में थड़े पर यह आदिवासी लोक नृत्य मेलार्थियों को रिझाएगा। दरअसल, ‘गवरी’ एक धार्मिक अनुष्ठानिक परम्परा है, जो महादेव शिव व महादेवी को रिझाने के लिए भील जनजाति के गांवों में होता है। पौराणिक व लोक कथाओं के अनुसार एक बार भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न कर एक भस्मी कड़ा प्राप्त कर लिया। माता पार्वती को पाने की लालसा में उसने भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा, किन्तु विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर भस्मासुर को ही भस्म कर दिया। भस्म होते समय भस्मासुर ने अन्तिम इच्छा के रूप में एक वरदान मांगा था। इसी कथा को यह नृत्य दर्शाता है।
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से सवा माह (चालीस दिन) के लिए ‘गवरी उत्सव’ मनाया जाता है। प्रथम दिन देवी के मन्दिर में गवरी के मुख्य पात्र राई-बूड़िया को गांव के प्रतिष्ठित पंचों के समक्ष भोपे के हाथों से ही पोशाक पहना कर उत्सव का आगाज होता है। इसमें छह प्रकार के पात्र देव, दनुज, मानव, पशु, खेचर और जलचर होते हैं। इस लोक नृत्य की खासियत यह है कि इसमें रम्मत, गम्मत, घई व राई का सुन्दर मिलाजुला रूप दिखता है। मुख्य भूमिका में बूड़िया, राइयां, भोपा और कुटकुटिया होते हैं। गवरी नृत्य की खूबी यह है कि इसमें सिर्फ भील पुरुष ही भाग लेते हैं। स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुषों द्वारा किया जाता है। वे स्त्री भेष धारण कर इसमें भाग लेते हैं। एक दल में 35 से 200 तक पात्र होते हैं। इसमें छोटी-छोटी कई लघु नाटिकाओं का मंचन किया जाता है, जिनकी कथाएं भागवत, मार्कण्डेय, पुराण, इतिहास, लोक संस्कृति पर आधारित होती हैं।
(Udaipur Kiran) / सुनीता