
उज्जैन, 17 मई (Udaipur Kiran) । विशुध्द भावों से किया गया तप ही सिध्दि का साधन है। तपस्या आत्म कल्याण के लिए करो, बाह्य दिखावे के लिए नहीं। ढंग का जीवन जियो, साधना के क्षेत्र में ढोंग मत करो। अन्य क्षेत्र में किया गया पाप धर्म क्षेत्र में दूर किया जा सकता है, परंतु धर्म क्षेत्र में किया गया शिथिलाचार, पाप बज्रलेप के समान कठोर होता है। जितनी जितनी भाव विशुध्दि होगी उतना उतना सुख प्राप्त होगा। तपस्या करो, परंतु जगत की चाह मत करो।
यह बात दिगंबर जैन आचार्यश्री विशुध्दसागरजी गुरूदेव ने धर्मसभा में संबोधित करते हुए कही।
आचार्यश्री विशुध्दसागरजी ने कहा कि वह आपके बंधु हितैशी मित्र नहीं है जो सिनेमा घर ले जायें, अपितु सच्चे हितकारी मित्र वह हैं जो आपकी सत्य, संयम और आत्म कल्याण के मार्ग पर लगायें। जो पाप क्रियाओं में लिप्त करें, वे आपके प्रतिकूल मित्र हैं और जो पाप से रोकें, पुण्य से जोड़े वह आपके अनुकूल शत्रु हैं। जो दुख में साथ दें, कष्टों से उभार लें, संकटों में भी साथ न छोड़े वही सच्चा मित्र है। मित्र तबेले की पैंदी की तरह होना चाहिये, मित्र पारे की तरह न हो। सच्चा मित्र अपना सर्वस्व न्यौछावर कर अपने मित्र को उत्कर्ष के मार्ग पर अग्रसर करता है।
देश के सैनिकों के लिए भी दुआ करो
देश के नागरिक घर में शांति का जीवन जीते उसी समय देश के सिपाही सैनिक देश की सीमा पर सजगता के साथ खड़े रहते हैं।
सच्चा सैनिक अपने प्राण न्योछावर कर देता है, परंतु वह शत्रुओं के समक्ष पीछे नहीं हटता है। सैनिक और साधु एक समान होते हैं, सैनिक शत्रुओं से रक्षा करता है, साधु आंतरिक पापों से रक्षा करते हैं। देश की खुशहाली के लिए नागरिकों को देश की सीमा पर खड़े सैनिकों के लिए भी दुआ करना चाहिये।
संतान को जन्म देने के साथ संस्कार भी दो।
अपनी संतान को गाली देना नहीं सिखाना। संतान को जन्म देना तो चिड़िया भी जानती है, संतान को संपत्ति देने के साथ अच्छे संस्कार भी प्रदान करो। संस्कार शून्य संतान शत्रु के समान कष्ट प्रदान करती है। संतान श्रवणकुमार जैसी हो, संतान राम जैसी हो, परंतु कंस व रावण जैसी न हो, कुणिक जैसी न हो।
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(Udaipur Kiran) / ललित ज्वेल
