Gujarat

वरदायिनी माता की आराधना में श्रद्धालुओं ने बहाई घी की नदी

रूपाल गांव में पल्ली पर घी का अभिषेक करते हुए श्रद्धालु।
पल्ली पर घी के अभिषेक के बाद सड़कों पर बहती घी की धारा।

-गांधीनगर के रूपाल में महाभारत कालीन परंपरा को जीवंत रखे हैं श्रद्धालु

गांधीनगर, 12 अक्टूबर (Udaipur Kiran) । गांधीनगर जिले के रूपाल गांव में वरदायिनी माता की पल्ली भरने की महाभारत कालीन परंपरा को श्रद्धालुओं ने आज भी जीवंत रखा है। रूपाल गांव में नवमी की रात माताजी की पल्ली भरी गई। इसमें भक्तों ने हजारों किलो शुद्ध घी से उनका अभिषेक किया। इससे गांव की सड़कें घी से छलछला उठीं और नदी की तरह घी बहने लगा। मान्यता के अनुसार श्रद्धालु अपने बच्चों के लिए वरदायिनी माताजी से मन्नत मांगते हैं, जिसे पूरा करने के लिए वे नवरात्र की नवमी तिथि को माता का घी से अभिषेक करते हैं।

रूपाल गांव में वर्षों पुरानी परंपरा के अनुसार अश्विन महीने की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को माताजी की पल्ली निकाली जाती है। इसमें श्रद्धालु माताजी को शुद्ध देसी घी से अभिषेक करते हैं। रूपाल गांव में शुक्रवार रात जब पल्ली निकली तो रास्तों पर घी ऐसे बहने लगा, जैसे वो पानी हो। भीड़ वरदायिनी माता के जयकारे लगाती रही। एक अनुमान के अनुसार लाखों लीटर घी से माता का अभिषेक किया गया। रूपाल गांव में 27 चकला पर पल्ली खड़ी कर इसपर घी डाला जाता है। जहां से पल्ली गुजरती है, वहां-वहां घी की नदी बहने लगती है। पल्ली का मतलब माता का रथ, जिसमें घोड़ा आदि कुछ भी नहीं होते हैं। श्रद्धालु ही इसे खींच कर ले जाते हैं। जानकारों के अनुसार सर्वप्रथम पांडवों ने सोने की पल्ली बनाई थी। इसके बाद पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह चौहाण ने खेजड़ी (शमी) की लकड़ी से पल्ली बनाई थी। हाल में रूपाल गांव की पल्ली बनाने के लिए ब्राह्मण, वणिक पटेल, सुथार, वणकर, पींजरा, चावडा, माली, कुम्हार आदि 18 समाज के लोग मिलकर सहयोग करते हैं। इस तरह यह पल्ली सर्वसमाज की सद्भावना की भी प्रतीक बन चुकी है। सर्वप्रथम रथ की लकड़ी के लिए गांव के वाल्मिकी समाज के लोग खेजड़ी का लकड़ी लाते हैं।

पल्ली के साथ जुड़ा ही रामायण का प्रसंग

पांडवकाल से शुरू हुई वरदायिनी माता की परंपरा आज भी रूपाल गांव में जीवंत है। प्रतिवर्ष यहां नवरात्र की नवमी को पल्ली भरी जाती है। वरदायिनी माता की पल्ली के साथ रामायण के प्रसंग का भी वर्णन है। वरदायिनी माता देवस्थान संस्थान के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम चंद्र अपने पिता की आज्ञा से वन गए थे। भरत मिलाप के बाद श्री शृंगी ऋषि के आदेश से लक्ष्मण और सीता माता समेत श्री वरदायिनी माताजी का दर्शन कर पूजा अर्चना की थी। इस पर वरदायिनी माता ने प्रसन्न होकर भगवान श्रीराम को आशीर्वाद प्रदान किया। उन्होंने श्रीरामजी को शक्ति नामक एक अमोघ दिव्य अस्त्र प्रदान किया। लंका में युद्ध में भगवान श्रीराम ने इसी बाण से अजेय रावण का वध किया था।

महाभारत काल में जंगल से घिरे रूपाल क्षेत्र में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे माता जी का स्थान था। गुप्तवास पूरा कर पांडव विराटनगर यानी अभी के धोलका से रूपाल अपने शस्त्रों को लेने आए थे। इसके बाद इन्होंने अपने शस्त्रों की पूजा कर पांच बत्ती की दीप वाली पल्ली बनाकर माता जी के पास रखा। तभी से यहां माताजी की पल्ली की परंपरा शुरू हुई। पल्ली की मान्यता यह है कि जिसकी मन्नत पूरी होती है वह पल्ली पर घी चढ़ाते हैं। इसके अलावा नवजातों को भी दर्शन कराने लोग पल्ली आते हैं। माता भी पल्ली की वंदना करती हैं। इस दौरान जहां महिलाएं सिर पर घड़े लेकर गरबा करती हैं, वहीं गांव के युवक पल्ली को एक चौक से दूसरे चौक ले जाते हैं।

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(Udaipur Kiran) / बिनोद पाण्डेय

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