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-नाम बदलने को मौलिक अधिकार करार देने वाले एकल पीठ के आदेश को खंडपीठ ने पलटा
-शाहनवाज से नाम बदलकर मो समीर राव करने की मांग यूपी बोर्ड ने कर दी थी खारिज़
प्रयागराज, 15 फरवरी (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि अपने नाम में परिवर्तन करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। यह नियमों के अधीन है। यह केंद्र तथा राज्य सरकार की नीतियों के अनुसार संचालित होगा।
याची द्वारा अपना नाम शाहनवाज से बदल कर मो समीर राव करने की मांग के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की विशेष अपील पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायमूर्ति अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र की खंडपीठ ने इस निर्णय के साथ एकल पीठ द्वारा नाम परिवर्तन करने को मौलिक अधिकार करार देने वाले निर्णय को रद्द कर दिया है।
एकल पीठ ने 25 मई 2023 के आदेश से यूपी बोर्ड के क्षेत्रीय निदेशक के उस आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें उन्होंने याची शाहनवाज का नाम परिवर्तित करने का प्रार्थना पत्र रद्द कर दिया था। यूपी बोर्ड का कहना था कि नियमानुसार नाम परिवर्तन के लिए आवेदन 3 साल के भीतर ही किया जाना चाहिए। एकल पीठ ने यूपी बोर्ड के इस नियम को मनमाना और असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि अपनी पसंद का नाम रखना व्यक्ति का अनुच्छेद 21 व 19 में मौलिक अधिकार है। यूपी बोर्ड के नियम इन मूल अधिकारों से सुसंगत नहीं है, इसलिए यह संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत है। एकल पीठ में यांची शाहनवाज का नाम बदलकर मोहम्मद समीर राव करने और उसके हाई स्कूल व इंटरमीडिएट सहित अन्य सभी प्रमाण पत्रों ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, आधार कार्ड आदि पर नया नाम अंकित करने का निर्देश दिया था।
प्रदेश सरकार की ओर से इस आदेश को विशेष अपील दाखिल कर चुनौती दी गई थी। राज्य सरकार के अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता रामानंद पांडेय ने कई दलीलें दी। उनका कहना था कि मौलिक अधिकार निर्बाध नहीं है तथा इन पर कुछ सुसंगत प्रतिबंध भी हैं। उन्होंने कहा कि नाम का परिवर्तन करना यूपी बोर्ड के 1921 एक्ट के अध्याय 12 द्वारा नियमित व संचालित होता है। इसलिए नाम में परिवर्तन 7 साल के बाद स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसका प्रावधान रेगुलेशन 7 के चैप्टर 3 में दिया गया है। रामानंद पांडे ने कहा कि एकल न्याय पीठ ने अपने न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार की सीमा से बाहर जाकर के आदेश दिया है ।
नाम में परिवर्तन करने के नियम बनाना सरकार का नीतिगत मामला है। उन्होंने यह भी दलील दी कि ऐसे सभी मामले जिनमें केंद्र या राज्य विधायन के कानून को चुनौती दी गई हो, उस पर खंडपीठ में ही सुनवाई हो सकती है। एकल न्याय पीठ को इस पर सुनवाई का अधिकार नहीं है। इस सम्बंध में एक अगस्त 2016 को मुख्य न्यायाधीश द्वारा कार्यालय आदेश पारित किया गया है।
जबकि याची का पक्ष रखने के लिए नियुक्त न्याय मित्र श्रेयस श्रीवास्तव का कहना था कि एकल न्यायपीठ ने नाम परिवर्तन का आदेश पारित कर कोई गलती नहीं की है। कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद कहा कि एकल न्याय पीठ ने रेगुलेशन 40 (सी) को मनमाना असंवैधानिक और मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाला घोषित किया है। तथा राज्य और केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को उचित वैधानिक व प्रशासनिक कार्य योजना तैयार करने का निर्देश दिया है। साथ ही एकल पीठ यूपी बोर्ड के इस नियम को रीड डाउन (कानून की शक्ति को सीमित करना) यानी असंवैधानिक कर दिया है। जबकि वास्तव में एकल न्याय पीठ को ऐसा आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है। यह राज्य का नीतिगत मामला है तथा केंद्र और राज्य सरकार को ऐसे मामलों में नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है। कोर्ट ने एकल न्यायपीठ के आदेश को रद्द कर दिया है।
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे
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