मुंबई,18जून ( हि.स.) । यह किसी फिल्मी अथवा टीवी सीरियल की गमगीन कहानी से कम नहीं,जब कोई युवती अपने प्रिय जनों से बिछुड़ जाती है और लाचारी बेबसी की अवस्था में उसे पागलखाना अथवा मानसिक चिकित्सा में लाया जाता है । ढाई दशक इसकी कोई सुध नहीं लेता न ही पता लगाने की कोई कोशिश करता कि अबला पीड़िता युवती की आखिर क्या वेदना है जिसे वह शब्दों में बयां नहीं कर सकती है ।यह एक ऐसी अवस्था है जब सदमा से विक्षिप्त कोई अबला इस मानसिक सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाई और मानसिक रूप से अपाहिज हो गई।यह एक ऐसी ही दर्द भरी दासता है लगभग 27साल पहले ठाणे मनोरोग चिकित्सालय में लाई गई इस बदनसीब पीड़ित महिला की जिसे उसके परिजनों ने फिर से अपनाया है।
कई परिवारों का कहना है कि मरीज को अवांछित सा महसूस होता है। अक्सर, जब कोई मरीज मनोरोग अस्पताल में भर्ती होता है, तो उन्हें लगता है कि उनका कर्तव्य पूरा हो गया है। इसलिए, वर्षों से मनोरोग अस्पताल में कई रोगियों को देखने के बावजूद, अस्पताल ठाणे मनोरोग अस्पताल में 27 साल से इलाज करा रही एक महिला के परिवार का पता लगाने और उसे उसके सही घर भेजने में सफल रहा है।
प्रियदर्शिनी, उम्र अंदाजन 45 (बदला हुआ नाम) कुछ धीमी आहिस्ता से चलने वाली और मानसिक रूप से बीमार थी, इसलिए प्रियदर्शिनी को सितंबर 1997 में ठाणे क्षेत्रीय मनोरोग अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वास्तव में, कुछ दिनों के उपचार के बाद, जाधव परिवार को उम्मीद थी कि वह उसे घर ले जाएगा। हालाँकि, परिवार उसे लेने के लिए अनिच्छुक था। पहले कुछ दिनों तक, जयश्री का भाई उसकी माँ से मिलने जाता था और सवाल पूछता था। उसके बाद, सभी ने आना बंद कर दिया। अस्पताल ने परिवार से संपर्क करने की कोशिश की। संपर्क के लिए दिया गया मोबाइल नंबर और पता सब बदल दिया गया था। इस वजह से प्रियदर्शिनी ( परिवर्तित रखा गया नाम) का अपने परिवार से मिलना मुश्किल हो गया था। अस्पताल लगातार प्रियदर्शिनी के परिवार को खोजने की कोशिश कर रहा था। सारी कोशिशें बेकार गईं। कुछ महीने पहले अस्पताल के समाज सेवा विभाग को पता चला कि उसकी मां जामनेर इलाके में रह रही है। तदनुसार, पुलिस की मदद से मां से संपर्क किया गया। लेकिन कहानी में फिर नया मोड़ जब , मां ने अपनी बेटी की देखभाल करने में असमर्थता जताई। अस्पताल को जानकारी मिली कि प्रियदर्शिनी के दो भाई मुंबई में कहीं रह रहे हैं। तदनुसार, अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. नेताजी मुलिक के मार्गदर्शन में अस्पताल के समाज सेवा विभाग ने ठाणे जिले के उल्हासनगर इलाके में खोज की। कुछ हद तक घनी आबादी वाले इलाके में प्रियदर्शिनी के भाइयों को ढूंढना एक मुश्किल काम था। अस्पताल के समाज सेवा अधीक्षक ब्रम्हदेव जाधव ने बताया कि ऐसा ही मामला था। भाइयों ने भी प्रियदर्शिनी को घर ले जाने में असमर्थता जताई। हालांकि, अस्पताल ने दोनों भाइयों की काउंसलिंग की। उनकी कठिनाइयों को जानते हुए, उन्होंने उनसे बाहर निकलने का रास्ता खोजने का आश्वासन दिया। अब सुखद अंत यह है कि प्रियदर्शिनी लगभग 27 वर्षों के बाद अपने परिवार के घर गई हैं। इस कहानी में कई मोड आते रहे जब अधिकतर मायूसी और निराशा ही हाथ लगी लेकिन ठाणे मनोरोग चिकित्सालय की उप अधीक्षक डोममाता अलासपुरकर वार्ड मनोचिकित्सक डॉ प्रज्ञा कासर ,सेविका रीना वासुदेव, मनो चिकित्सक सिस्टर कृपा गौड़ विंदे, व्यवसायिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ अश्लेषा कोली सहित इस टीम ने अथक परिश्रम करते हुए अपनी मुस्कान से प्रियदर्शिनी को संभाले रखा और उसे उसके बिछुड़े अपने परिजनों से मिला ही दिया ।
ठाणे प्रादेशिक चिकित्सालय के चिकित्सक अधीक्षक डॉ नेताजी मुलिक का कहना है कि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 के अनुसार, मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को जेल जैसी अधिक प्रतिबंधात्मक संस्था में रखने के बजाय उसे कम प्रतिबंधात्मक वातावरण या परिवार में भेजना आवश्यक है। परिवार में रहने और सामाजिक जीवन जीने के अधिकार को सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए।
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(Udaipur Kiran) / रवीन्द्र शर्मा
