Uttar Pradesh

स्वतंत्रता आंदोलन में होली क्रांतिकारियों की ढाल बनती थी, और होती थी गुप्त बैठकें

कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा

–होली पर्व धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक

वाराणसी, 13 मार्च (Udaipur Kiran) । होली, रंगों का पर्व केवल एक उत्सव नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक भी है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में होली का एक अहम स्थान था। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा के अनुसार, होली के मेलों का उपयोग क्रांतिकारियों ने जनचेतना फैलाने के लिए किया था। 1867 की क्रांति के दौरान, कई क्रांतिकारी गुप्त रूप से होली के अवसर पर संगठित होकर महत्वपूर्ण बैठकें करते थे।

प्रो. शर्मा बताते हैं कि वैदिक और पुराणकाल में भी होली का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद, नारद पुराण और भविष्योत्तर पुराण में इस पर्व का उल्लेख है। तंत्र पुराण में यह वर्णित है कि जब माता सती ने आत्मदाह किया, तो महादेव ने श्मशान में भस्म से होली खेली। आज भी काशी के महाश्मशान पर साधु-संत भस्म से होली खेलते हैं। जो यह दर्शाता है कि जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर ही असली आनंद प्राप्त किया जा सकता है।

द्वापर युग में भगवान कृष्ण और ब्रजवासियों के साथ होली खेलने का प्रसंग भी बहुत प्रसिद्ध है। ब्रम्हवैवर्त पुराण और गर्ग संहिता में वर्णित है कि कृष्ण ने गोपियों के साथ होली खेली थी। कृष्ण, जो जन्म से श्यामवर्ण थे, ने माता यशोदा से राधा पर रंग लगाने का तरीका पूछा, ताकि उनकी गोरी त्वचा से रंग का भेद मिट जाए।

प्रो. शर्मा के अनुसार भारतीय परंपराओं में होली का उल्लेख वेदों, पुराणों, महाकाव्यों और ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है, जो इस पर्व की गहरी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्ता को दर्शाता है।

–होली पर्व लोकसंगीत और नृत्य से भी जुड़ा है

कुलपति प्रो. शर्मा के अनुसार, होली का पर्व भारतीय संगीत और नृत्य से भी गहरा जुड़ा हुआ है। ब्रज के रसिया, फाग, धमार, चौताल और अवध की होरी होली के प्रमुख गीतों में शामिल हैं। संत सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, मीराबाई और रसखान ने भी होली के सुंदर पद लिखे हैं, जो इस पर्व के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को और बढ़ाते हैं।

—देश में होली के विभिन्न रूप

होली का पर्व भारत में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। ब्रज की लठमार होली, नंदगांव और बरसाना में होली का विशेष महत्व है। बंगाल में इसे ‘दोल उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है, जबकि पंजाब में ‘होला मोहल्ला’ के नाम से यह वीरता और शक्ति का प्रतीक बनकर मनाया जाता है। सिख समाज के लिए यह दिन खासतौर पर वीरता और शौर्य का प्रतीक है। महाराष्ट्र में इसे रंगपंचमी के रूप में पारंपरिक रूप से पांचवें दिन मनाया जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि प्राचीन काल में होली के रंग प्राकृतिक थे—गुलाल, टेसू के फूल और चंदन का उपयोग किया जाता था। अब एक बार फिर लोगों को प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करने की प्रेरणा दी जा रही है।

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(Udaipur Kiran) / श्रीधर त्रिपाठी

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