Madhya Pradesh

झाबुआ: एक दृष्टि बाधित शख्स जो दिव्यांगों के लिए बना पथ प्रदर्शक 

दृष्टि दिव्यांग बाबूलाल जिला कलेक्टर से सम्मान प्राप्त करते हुए

झाबुआ, 13 जनवरी (Udaipur Kiran) । अक्सर कहा जाता है कि जहां चाह वहां राह दिखाई देने लगती है। अर्थात इच्छा शक्ति यदि मजबूत है, तो रास्ते स्वयं निकलने लगते हैं, जीवन में आ रही चुनौतियां अवसर में तब्दील होती हुई नजर आने लगती है, और तब उन रास्तों पर चलकर व्यक्ति अपने जीवन को एक नए मुकाम पर ले जाने में समर्थ हो जाता है, किंतु जीवन में भारी चुनौतियों का सामना करते हुए केवल स्वयं को ही ऊंचे मुकाम पर ले जाना क्या जीवन का यही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए?

एक दृष्टि बाधित शख्सियत की यदि बात की जाए तो इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही होगा, क्योंकि जीवन के आरंभिक काल में दृष्टि की दिव्यांगता की भारी चुनौतियों का सामना करते हुए और उन चुनौतियों को अवसर में बदलने वाले शख्स ने अपने जैसे अनेक दृष्टि बाधित लोगों या अन्य दिव्यांग जनों के जीवन को संवारने में न केवल अपना समय दिया, बल्कि अपना संपूर्ण सामर्थ्य और अपनी चेतना शक्ति लगा दी।

सफलता की इस सच्ची कहानी में वस्तुतः ऐसी अनेक कहानियां समाहित हैं, जिसके मुख्य पात्र झाबुआ जिले के निवासी डॉ. बाबूलाल कुम्हारे हैं, जिन्होंने अपनी संकल्प शक्ति और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर अनेक कहानियों को सफलता की कहानियों में तब्दील कर दिया, किंतु ऐसा करने के पूर्व उन्हें अपने स्वयं को योग्य, समर्थ और बनाए जाने की जरूरत महसूस हुई और यहीं से शुरू हुई सफलताओं की अनेक कहानियों को जन्म देने वाली आधारभूत सफलता की यह कहानी।

जन्म से ही दृष्टि बाधित डॉ. बाबूलाल कुम्हारे झाबुआ जिले के निवासी हैं, और वर्तमान में छत्रसाल शासकीय महाविद्यालय पिछोर जिला शिवपुरी में समाजशास्त्र के अतिथि व्याख्याता के रूप में अध्यापन कार्य में रत है। डॉ. कुम्हारे के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं, साथ ही दिव्यांगों के संदर्भ में दो पुस्तकें (दिव्यांग बच्चों के विकास में सामाजिक संस्थाओं का योगदान, और दिव्यांग जनों का सशक्तिकरण; झाबुआ जिले के संदर्भ में) भी प्रकाशित हुई है। इस मुकाम पर पहुंचने का उनका सफर एक तरफ जहां रोमांचकारी है, तो वहीं दूसरी तरफ संघर्षमय और कठिनाइयों से भरा हुआ भी है।

दृष्टि बाधित डॉ. बाबूलाल कुम्हारे से जब उनके अंधकारमय समझे जाने वाले जीवन की प्रकाश से परिपूर्ण समग्र यात्रा के बारे में बात की गई तो उन्होंने हिंदुस्थान समाचार से बात करते हुए दृष्टि दिव्यांगता के कारण अपने आरंभिक जीवन में आई गंभीर चुनौतियों सहित जीवन की वास्तविकताओं को सिलसिलेवार तरीके से उद्घाटित किया,

कुम्हारे कहते हैं कि मेरी दृष्टि दिव्यांगता को आरंभ में केवल दृष्टि की कमजोरी ही समझा गया था, किंतु

नैत्र विशेषज्ञ द्वारा दृष्टि दिव्यांग घोषित किए जाने पर मेरे जीवन का स्याह पहलू उजागर हो गया, और तब मुझे अपना जीवन गहन अंधकार में समाता हुआ नजर आया, परंतु गांव के ही स्कूल अध्यापक सुंदरलाल जैन द्वारा मेरे पिता को मेरी पढ़ाई संबंधी सलाह एवं उनके प्रयासों ने मेरी पढ़ाई के रास्ते खोल दिए, और मुझे भाबरा ब्लाइंड स्कूल में भेज दिया गया, ज़हां जाने के बाद मुझे रौशनी की किरण दिखाई दी, किंतु मैंने इस दौरान दृष्टि बाधित होने की भयावह मानसिक वेदना सही थी, और तब संकल्प लिया था कि मैं जीवन में दृष्टि बाधितजनों हेतु अपना सर्वस्व समर्पित करते हुए एवं उनके जीवन में व्याप्त अंधकार को दूर करने का यथासंभव प्रयास करता रहूंगा। कुम्हारे कहते हैं कि मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य दिव्यांगों को उनके मौलिक अधिकारों से अवगत कराना, उन्हें रोजगारोन्मुखी शिक्षा दिलाना, शासन की विभिन्न योजनाओं से अवगत कराना और शासन प्रशासन से उन्हें आर्थिक सहायता दिलवाना रहा है, इसलिए मैं दृष्टि बाधितों को ढूंढ ढूंढ कर उन्हें उनके योग्य स्कूलों और संस्थाओं में पहुंचाता रहा हूं। हालांकि अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैंने इस दिशा में कार्य शुरू कर दिया था, किंतु उस समय मुझे जरूरी लगा कि ज्ञानार्जन कर मैं स्वयं समर्थ बनूं ताकि अन्य दिव्यांग जनों खासकर दृष्टि बाधितों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन का बेहतर माध्यम बन सकूं, मैंने शासकीय महाविद्यालय झाबुआ से स्नातक एवं समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर किया, भोज विश्व विद्यालय से बी एड की परीक्षा पास की, इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज से एम एस डब्ल्यू तथा डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय महू से एम फिल किया, तत्पश्चात दैवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर से विकलांग जनों के सामाजिक, आर्थिक, सशक्तिकरण के प्रयासों का अध्ययन (झाबुआ जिले के विशेष संदर्भ में) विषय पर पी एच डी की उपाधि हासिल की। दिव्यांग जनों को लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेरे अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं, साथ ही पुस्तकें (दिव्यांग बच्चों के विकास में सामाजिक संस्थाओं का योगदान, और दिव्यांग जनों का सशक्तिकरण; झाबुआ जिले के संदर्भ में) भी प्रकाशित हुई है।

यह पूछे जाने पर कि दृष्टि बाधित होने पर अध्ययन कैसे संभव हुआ? डॉ. कुम्हारे कहते हैं कि आरंभिक शिक्षा में पहले टेप रिकॉर्डर, सी डी और फिर कंप्यूटर के माध्यम से शिक्षा हुई। ब्रेल लिपि भी सहायक बनीं। (प्राचीन समय में जैसे ब्राह्मणी लिपि हुआ करती थी, ऐसे ही वर्तमान में दृष्टि दिव्यागों के लिए ब्रेल लिपि है।) साथ ही जो पुस्तकें प्रकाशित हुई, शोध पत्र प्रकाशित हुए, उन्हें सर्वप्रथम मैंने ब्रेल लिपि में ही लिपिबद्ध किया था, फिर उसका साहित्यिकरण कराया, फिर मैंने उसे सुना, और अंत में टाइप तथा कंप्यूटराइज्ड कराया गया, तब उनका प्रकाशन हुआ।

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(Udaipur Kiran) / उमेश चंद्र शर्मा

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