-पुरुषों और महिलाओं के लिए विवाह की कानूनी उम्र में अंतर, पितृ सत्तात्मक पूर्वाग्रह पर आधारित : हाईकोर्ट
प्रयागराज, 07 नवम्बर (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए निर्णय दिया है कि जिस लड़की की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हुई हो, वह 20 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकती है। इसी प्रकार एक लड़का जिसका विवाह 21 वर्ष की आयु से पहले हुआ है वह 23 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि पति 23 वर्ष की आयु से पहले बाल विवाह निषेध कानून (पीसीएमए) की धारा 3 का लाभ लेने के लिए तथा बाल विवाह को शून्य कराने के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। प्रस्तुत मामले में यह निर्विवाद था कि दम्पति के बीच बाल विवाह हुआ था, इसलिए न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया। पत्नी ने 50 लाख रुपये का स्थायी गुजारा भत्ता मांगा, जबकि पति ने कहा कि वह केवल 15 लाख रुपये ही दे सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि प्रिंसिपल जज फेमिली कोर्ट गौतमबुध नगर के आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता। इसे रद्द किया जाता है। पक्षों के बीच किए गए “बाल विवाह“ के लेन-देन को शून्य घोषित किया जाता है। एक महीने की अवधि के भीतर प्रतिवादी पत्नी को 25 लाख रुपये का भुगतान किया जाए। यह आदेश जस्टिस एस डी सिंह एवं जस्टिस दोनादी रमेश की खंडपीठ ने संजय चौधरी की अपील पर पारित किया है।
न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि बाल विवाह को रद्द करने के लिए समय सीमा की गणना करने के प्रयोजनार्थ पुरुष की वयस्कता की आयु 18 वर्ष से प्रारंभ होगी या 21 वर्ष से। हाईकोर्ट ने कहा कि भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच विवाह की कानूनी उम्र में अंतर “पितृसत्ता का एक अवशेष के अलावा कुछ नहीं है। वर्तमान में भारत में पुरुषों के लिए विवाह की आयु 21 वर्ष है जबकि महिलाओं के लिए 18 वर्ष है। खंडपीठ ने कहा कि विधायी मंशा पुरुषों को अपनी शिक्षा पूरी करने और परिवार की सहायता के लिए वित्तीय स्वतंत्रता हासिल करने के लिए अतिरिक्त तीन वर्ष की अनुमति देने की है।
हालाँकि, न्यायालय ने कहा कि यह महिलाओं को समान अवसर से वंचित करने के समान है। हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी एक पति की अपील पर विचार करते हुए की, जो एक पारिवारिक न्यायालय द्वारा उसके विवाह को शून्य घोषित करने से इंकार करने के खिलाफ थी। विवाह शून्य कराने का पति का आधार था कि 2004 में हुआ यह विवाह बाल विवाह था, क्योंकि उस समय वह केवल 12 वर्ष का था और उसकी पत्नी केवल 9 वर्ष की थी।
वर्ष 2013 में पति ने 20 वर्ष, 10 महीने और 28 दिन की आयु में बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) की धारा 3 के तहत लाभ का दावा किया था। यह प्रावधान विवाह के समय बालिग पक्ष को विवाह को अमान्य घोषित करने की अनुमति देता है।
पत्नी ने तर्क दिया कि राहत का दावा सीमा अवधि से बहुत आगे जाकर किया गया था। उसने कहा कि उसके पति की उम्र 2010 में 18 वर्ष हो गई थी। हाईकोर्ट के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या पुरुष के लिए वयस्कता की आयु 18 वर्ष से शुरू होगी या 21 वर्ष से, जो कि विवाह के लिए कानूनी आयु है।
न्यायालय ने कहा कि 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष और 18 वर्ष से कम आयु की महिला को पीसीएमए के प्रयोजनों के लिए “बच्चा“ माना जाता है। न्यायालय ने पाया कि पीसीएमए के तहत ’वयस्कता’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
हालाँकि, इसमें यह भी कहा गया है कि पक्षकार को स्वयं वयस्क होने के 2 वर्ष के भीतर याचिका दायर करनी होगी। पत्नी ने तर्क दिया कि राहत का दावा सीमा अवधि से बहुत आगे जाकर किया गया था। उसने कहा कि उसके पति की उम्र 2010 में 18 वर्ष हो गई थी।
न्यायालय ने कहा कि 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष और 18 वर्ष से कम आयु की महिला को पीसीएमए के प्रयोजनों के लिए “बच्चा“ माना जाता है। न्यायालय ने पाया कि पीसीएमए के तहत ’वयस्कता’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। न्यायालय ने कहा कि विधायिका यह मानती है कि 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का कोई भी व्यक्ति अपने कृत्य “बाल विवाह“ करने के परिणामों को समझता है।
पति ने हाईकोर्ट में यह राहत इस आधार पर मांगी गई थी कि 2004 में हुआ यह विवाह बाल विवाह था, क्योंकि उस समय वह केवल 12 वर्ष का था और उसकी पत्नी केवल 9 वर्ष की थी। वर्ष 2013 में पति ने 20 वर्ष, 10 महीने और 28 दिन की आयु में बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) की धारा 3 के तहत लाभ का दावा किया था। यह प्रावधान विवाह के समय बालिग पक्ष को विवाह को अमान्य घोषित करने की अनुमति देता है।
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे