—मृदाजनित रोग का संक्रमण पत्ती के फलक (ब्लेड) तक फैल सकता है,ट्राइकोडर्मा प्रयोग करें
वाराणसी,22 अक्टूबर (Udaipur Kiran) । वाराणसी सहित पूर्वांचल के जिलों के किसान धान के फसल में पर्णच्छद झुलसा रोग को लेकर परेशान है। यह रोग एक कवक राइजोक्टोनिया के जरिए उत्पन्न होता है। इस रोग को सबसे पहले वर्ष 1910 में जापान से रिपोर्ट किया गया था। जो आगे चलकर समस्त विश्व में फैल गया। संपूर्ण विश्व के चावल उत्पादक देशों में यह रोग आर्थिक दृष्टि से किसानों के लिए परेशानी का कारण है। अनुकूल जलवायु वाले परिस्थितियों में यह फसल से मिलने वाले उत्पादन को आधा (पचास फीसदी) तक घटा सकने की क्षमता रखता है। बीएचयू के कृषि वैज्ञानिक डॉ जय पी राय के अनुसार यह एक मृदाजनित रोग है। जिसके प्रारंभिक लक्षण सामान्यतया पौधे पर खेत में भरे पानी की रेखा पर या उसके ठीक ऊपर पत्ती के आवरण (पर्णच्छद अथवा शीथ) पर गोलाकार, अंडाकार या दीर्घवृत्ताकार, पानी से लथपथ हरे-भूरे रंग के धब्बों के रूप में विकसित होते हैं। जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, धब्बे आकार में बड़े होते जाते हैं और अनेक छोटे धब्बे आपस में मिलकर भूरे से गहरे भूरे रंग के अनियमित किनारों या रूपरेखाओं से घिरे धूसर सफेद केंद्रों वाले बड़े घाव में बदल जाते हैं। संक्रमण पत्ती के फलक (ब्लेड) तक फैल सकता है और गहरे हरे, भूरे या पीले-नारंगी किनारों वाले अनियमित घाव पैदा कर सकते हैं। अंगमारी के घाव बड़े पैमाने पर विकसित हो सकते हैं और आंशिक या पूरी पत्ती के फलक पर भी मिल सकते हैं, जो रैटलस्नेक की त्वचा सदृश चितकबरा पैटर्न बना सकते हैं। ये क्षतिग्रस्त ऊतक पौधे के ऊपर के ऊतकों (पत्तियों और पुष्पगुच्छों) में पानी और पोषक तत्वों के सामान्य प्रवाह को बाधित करते हैं। रोगकारक फफूँद शुरुआती पर्णच्छद संक्रमण से तने में फैल सकता है और संक्रमित तने को कमजोर कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप कल्ले गिर सकते हैं। पर्णच्छद झुलसा/अंगमारी अथवा शीथ ब्लाइट से होने वाली क्षति निचले पर्णच्छद के आंशिक संक्रमण से लेकर दाने के भराव पर कम प्रभाव से लेकर पौधों की असमय मृत्यु और गिरने तक होती है, जिससे चावल की उपज और गुणवत्ता में उल्लेखनीय कमी आती है।
—किसान कैसे करें रोग प्रबंधन
रोग प्रबंधन के बारे में डॉ राय का कहना है कि प्रतिरोधी प्रजातियों के प्रयोग से लेकर खेत की साफ-सफाई, फसल-चक्र का पालन और संतुलित उर्वरक प्रयोग करने से रोग का प्रकोप कम होता है। उर्वरकों में नत्रजन उर्वरक के प्रयोग में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। क्योंकि इसकी आवश्यकता से थोड़ी भी अधिक मात्रा अनेक रोगों और कीटों को निमंत्रण देती है। इसलिए उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना चाहिए। घनी रोपाई की दशा में सूरज की धूप नीचे तक नहीं पहुँच पाती है। जिससे फसल के निचले भाग में रोगों का प्रसार तेजी से होता है। उन्होंने बताया कि इस रोग के लिए उच्च प्रतिरोधी प्रजाति के विकास पर अनुसंधान किये जा रहे हैं । किंतु कुछ मध्यम प्रतिरोधी प्रजातियों को विकसित किया जा चुका है, जो किसानों के लिए उपलब्ध हैं। उन्होंने बताया कि एडीटी 58 (एडी 12132) (आईईटी 291211), एमटीयू धान 1232 (आईईटी 26422), स्वर्णा पूर्वी धान-2 इस रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी प्रजातियाँ हैं। उन्होंने बताया कि ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के माध्यम से रोग पर जैविक नियंत्रण भी किया जा सकता है। इसके लिए प्रति हेक्टेयर ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी 1फीसदी घुलनशील चूर्ण को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर धान रोपाई के एक महीने बाद 15 दिन के अंतराल पर तीन छिड़काव करना चाहिए।
रोग के रासायनिक नियंत्रण को सर्वाधिक प्रभावी बताते हुए डॉ राय इस विकल्प के विवेकपूर्ण प्रयोग पर विशेष बल देते हैं। उनका कहना है कि कृषि रक्षा रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से न केवल हमारा पर्यावरण प्रभावित हो रहा है वरन कृषि उत्पादों में भी रसायनों के अवशेष मिलने के कारण यह मानव उपभोग के लिए स्वास्थ्यप्रद नहीं रह जाते। उन्होंने बताया कि पर्णच्छद अंगमारी के नियंत्रण के लिए संस्तुत रसायनों में डाइफेंकोनाज़ोल 25 फीसद,ईसी को 0.05फीसद (100 लीटर पानी में 50 मिलीलीटर रसायन) की दर से, फ्लूसिलाजोल 40 फीसद ईसी की 300मिलीलीटर मात्रा, हेक्साकोनाजोल 5 फीसद की 1 लीटर मात्रा, क्रेसोक्सिम-मिथाइल 44.3 फीसद एससी की आधा किलो मात्रा, पॉलीऑक्सिन डी जस्ता लवण 5 फीसद एससी की 600 ग्राम मात्रा, प्रोपिकोनाजोल 25 फीसद ईसी की 500 ग्राम मात्रा, टेबुकोनाजोल 25.9 फीसद ईसी की 750 ग्राम मात्रा, ट्रायफ्लुजामाइड 24 फीसद एससी की 375 ग्राम अथवा पेनसाइक्यूरोन 22.9 फीसद एससी की 600 से 750 ग्राम मात्रा में से किसी एक को 500-750 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।
(Udaipur Kiran) / श्रीधर त्रिपाठी