जम्मू, 18 सितंबर (Udaipur Kiran) । साहिब बंदगी के सद्गुरु श्री मधुपरमहंस जी महाराज ने आज राँजड़ी, जम्मू में अपने प्रवनचों की अमृत वर्षा से संगत को निहाल करते हुए कहा कि आत्मा अनूठी है। यह पंच भौतिक तत्वों से परे है। सबने ऐसी व्याख्या की है। हमें देखना होगा कि मन और माया कैसी है। कहने सुनने के लिए सभी एक बात कहते हैं कि भाई, क्या करें, मन-माया में बंधे हैं। लेकिन इतना काफी नहीं है। एक तथ्य में दो राय नहीं हैं। मोक्ष की बात सभी कर रहे हैं। मैंने एक आदमी से कहा कि मानव जीवन मोक्ष की प्राप्ति के लिए हुआ है, कुछ मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी कोशिश करो। उसने कहा कि मुक्ति क्या करनी है। मैं यहाँ आनन्द में हूँ। मेरे पास बड़ा सुन्दर मकान है। धन भी बहुत है। नौकरी भी अच्छी है। पत्नी मेरी सुशील है। बच्चे पढ़े-लिखे हैं। आनन्द है। क्या करना मुक्ति लेकर।
पहली बात है कि ऐसी सोच कौन लोग रखते हैं। क्यों होती है ऐसी सोच। संसार में मुख्य कुछ इस तरह के लोग रहते हैं। क्यों होता है ऐसा। क्योंकि कर्मों के अनुसार ही बुद्धि होती है। जल तो निर्मल है। लेकिन जल के अन्दर गंदगी डाल दें तो कहते हैं कि जल गंदा हो गया। जल को परिशोधित कर दो तो गंदा नहीं है फिर। गंदे पदार्थ उसमें मिश्रित हो गये तो जल गंदा हो गया। इसी तरह आत्मा तो निर्मल है। हम पहले देखते हैं कि पामर लोग क्यों हैं। यह आत्मतत्व को सबमें एक जैसा है। न यह कम होता है न बढ़ता है।
पहले हम देखते हैं कि हमें मुक्ति की जरूरत क्या है। छोटे बच्चे धन का महात्म नहीं जानते हैं। एक छोटे बच्चे को मैंने 100 का नोट दिया, उसने फाड़ कर फेंक दिया। लेकिन जैसे थोड़े बड़े होते हैं तो हम जान जाते हैं कि भाई, सभी काम धन से ही तो हो रहे हैं। इसी प्रकार जब तक हम मोक्ष की महत्ता नहीं जानेंगे, हम उसके लिए कोशिश नहीं करेंगे। आदमी मोक्ष के लिए कोशिश नहीं कर रहा है। क्यों। उसमें जिज्ञासा नहीं है। उसने देखा कि कैसे माँ-बाप जी रहे हैं। कैसे परिवार का संचालन हो रहा है। हम सबकी एक रवायत है कि बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो स्कूल भेजते हैं। उसके अन्दर एक धारणा प्रविष्ट करते हैं कि पढ़ो-लिखो। वो सबको देख रहा है। वो नौकरी के लिए पढ़ता-लिखता है। फिर हम सब उसको मजबूर करते हैं कि शादी कर लो। शादी कर लेता है तो सोचता है कि बच्चे हों। इस तरह पूरा जीवन व्यतीत कर लेता है लेकिन उसे सुख नहीं मिलता है।
आजतक जितने भी महात्मा हुए, सबने संसार को दुखमय कहा। सबने कहा कि हम सब बंधन में हैं। दुख क्यों है। सबने इसे दुखों का घर कहा। मनुष्य संसार से मरने के समय ऐसे जाता है जैसे जुआरी हारने के बाद बहुत पछताता है। सब पैसे गँवाने के बाद हाथ झाड़कर चला जाता है। एक न एक दिन तो जाना ही पड़ेगा। मनुष्य बहुत मेहनत करके धन इकट्ठा करता है, शादी करता है, बच्चे पैदा होते हैं, पौत्रू-दौत्रू आते हैं। अचानक एक दिन उसे सब कुछ छोड़कर जाना पड़ता है। यह बहुत बड़ा दुख है। फिर भी आदमी मोक्ष के लिए प्रयास नहीं कर रहा है। क्यों। अज्ञानवश। यह कहाँ से आया। एक माई छत से गिर गयी।
चारदीवारी नहीं लगाई थी। ध्यान हट गया। बाजू टूट गयी। उसके घर के सब लोग नामी थे। वो माई को मेरे पास लाए। मैंने माई को कहा कि अस्पताल जाओ, एक्सरा करवाओ। फिर मुझे बताना कि हड्डी टूटी है या माँस टूटा है। घर वालों ने कहा कि यह अस्पताल नहीं जाना चाहती है, तो सयाने के पास गयी थी और उसने एक पट्टी बाँधी हुई थी। माई ने मेरी बात नहीं मानी। वो फिर माई को मेरे पास लाए। मैंने अपनी बात दोहराई। पर वो बोले के डाक्टर बोल रहे हैं कि आपने लेट कर दिया। जहाँ से टूटा था, उसके बीच में माँस आ गया है। अब आप्रेश्न करना पड़ेगा। माई ने वो बात भी नहीं मानी। माई को कैंसर हो गया, माई मर गयी।
इस तरह इंसान मोक्ष के लिए उपाय नहीं करना चाहता है। अगर कर भी रहा है तो वो ठीक उपाय नहीं कर रहा है। हम अज्ञान के कारण बंधे हैं। यह तमोगुण से उत्पन्न हुआ। इसी अज्ञान के कारण हमें सब कुछ सच दिख रहा है। सब कुछ अपना लग रहा है। मन और माया में बंधा है। माया है काया। हम काया में बंधे हैं। काया क्या है-पाँच तत्व हैं और कुछ भी नहीं है। पूरा खेल मायाबी है। पर शरीर को काम करने के लिए जो उर्जा चाहिए वो आत्मा दे रही है। वो है प्राण। आत्मा प्राणों को ले रही है और छोड़ रही है। जो गंदे काम करने जा रहा है, तो भी आत्मा ने ताकत दे दी। क्योंकि आत्मा ने अपने को मन और बुद्धि मान लिया। आत्मा ने अज्ञान के कारण अपने को शरीर मान लिया। मन ने आत्मा को इसमें बाँध दिया। इसलिए आपका वैरी और कोई भी नहीं है, केवल मन है।
(Udaipur Kiran) / राहुल शर्मा