प्रयागराज, 26 अगस्त (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि हिन्दू विवाह में बिना किसी उचित कारण के जीवनसाथी को छोड़ना, अकेले रह गए जीवनसाथी के प्रति क्रूरता है। जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस दोनादी रमेश की पीठ ने कहा, “हिन्दू विवाह एक संस्कार है, न कि केवल एक सामाजिक अनुबंध। जहां एक साथी बिना किसी कारण या उचित कारण या मौजूदा या वैध परिस्थिति के दूसरे को छोड़ देता है।
हिन्दू विवाह की आत्मा और आत्मा की मृत्यु पति या पत्नी के प्रति क्रूरता का कारण बन सकती है। जो इस प्रकार न केवल शारीरिक संगति से वंचित रह सकता है, बल्कि मानव अस्तित्व के सभी स्तरों पर अपने पति या पत्नी की संगति से पूरी तरह वंचित हो सकता है।
श्रीमती अभिलाषा श्रोत्री का विवाह राजेन्द्र प्रसाद श्रोत्री से हुआ था। दोनों पक्षों की शादी 1989 में हुई थी और 1991 में एक बच्चे का जन्म हुआ। शुरुआत में, दोनों पक्ष शादी के कुछ सालों बाद अलग हो गए। हालांकि, कुछ समय के लिए फिर से साथ रहने लगे और फिर 1999 में फिर अलग हो गए। दूसरे समझौते के अनुसार, दोनों पक्ष फिर से साथ रहने लगे। हालांकि, वे आखिरकार 2001 में अलग हो गए और तब से अलग-अलग रह रहे हैं। पत्नी ने जज, फैमिली कोर्ट, झांसी द्वारा तलाक दिए जाने के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच विवाह सम्बंध खराब थे, क्योंकि दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगाए थे। जिनमें पति द्वारा पत्नी के खिलाफ क्रूरता का आरोप भी शामिल था। आरोप लगाया गया कि पत्नी के क्रूर व्यवहार के कारण उसकी मां ने आत्महत्या कर ली। अदालत ने पाया कि आत्महत्या के बाद दोनों पक्ष अलग हो गए थे और 23 साल से अलग-अलग रह रहे थे।
अदालत ने कहा, “लम्बे समय से खराब रिश्तों को देखते हुए इतने विलम्ब से उनके वैवाहिक सम्बंधों को पुनर्जीवित करने की कोई गुंजाइश नहीं है।“ इसके अलावा, न्यायालय ने अपीलकर्ता पत्नी के खिलाफ क्रूरता के आरोपों को बरकरार रखा, क्योंकि उसने बिना किसी उचित कारण के अपने वैवाहिक घर को छोड़ दिया था और प्रतिवादी पति के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, उसने वापस आने से इनकार कर दिया था। यह देखा गया कि दहेज की मांग और घरेलू हिंसा के आरोपों के लिए स्थापित मामला पारिवारिक न्यायालय के समक्ष साबित नहीं हुआ।
कोर्ट ने ’क्रूरता’ को परिभाषित करने के लिए, एनजी दास्ताने (डीआर) बनाम एस दास्ताने पर भरोसा किया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिए कि यह पति-पत्नी के मन में उचित आशंका पैदा करे कि साझा घर में रहने से जीवन या अंग या स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। यह भी माना गया कि न्यायालय को आदर्श पति या आदर्श पत्नी की तलाश नहीं करनी है क्योंकि आदर्श जोड़ा वैवाहिक न्यायालय में नहीं आएगा।
हाईकोर्ट ने कहा कि “वैवाहिक सम्बंधों के संदर्भ में व्यक्तिपरक और स्वाभाविक रूप से भिन्न, व्यक्तिगत मानवीय व्यवहार को जीवनसाथी के प्रति क्रूरता के रूप में समझा जा सकता है, जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और दूसरे जीवनसाथी पर इसके सिद्ध प्रभाव पर निर्भर करता है।“ यह माना गया कि एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे को बिना किसी उचित कारण के लगातार कई वर्षों तक साथ देने से पूर्णतः इनकार करना क्रूरता के समान है।
यह देखते हुए कि हिन्दू विवाह एक संस्कार है न कि सामाजिक अनुबंध। न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता पत्नी कभी भी पति के साथ सहवास नहीं करना चाहती थी। प्रतिवादी पति के साथ अपने वैवाहिक सम्बंध को पुनर्जीवित नहीं करना चाहती थी। यह देखा गया कि पत्नी का आचरण पिछले 23 वर्षों से बिना किसी कारण के एक जैसा था। तदनुसार, न्यायालय ने तलाक के आदेश को बरकरार रखा और पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता के रूप में 5 लाख रुपये देने का आदेश दिया।
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे / दिलीप शुक्ला