गोरखपुर, 28 जुलाई (Udaipur Kiran) । नाथ पंथ की इतिहास परक जानकारी उपलब्ध कराने वाले नाथ पंथ के विशिष्ट अध्येता डॉ. प्रदीप कुमार राव के ग्रंथ ‘नाथपंथ की वर्तमान उपादेयता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ के महत्वपूर्ण अवदान के बाद अब नाथ पंथ की दूसरी विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित डॉ. पद्मजा सिंह के ‘नाथपंथ का इतिहास’ शीर्षक से एक पुस्तकीय कृति का सृजन हुआ।
डॉ. पद्मजा सिंह की यह पुस्तक न केवल नाथपंथ के आभिर्भाव और पुनर्गठन का ऐतिहासिक विवेचन करती है बल्कि यह इस पंथ की विशिष्टता और लोक कल्याण की, स्वतः स्फूर्त प्रकृति और तत्संबंधी गतिविधियों को भी आमजन के समक्ष सरलता से प्रस्फुटित करती है। यह पुस्तक ऐतिहासिक आख्यान और तथ्यों के साथ यह विश्लेषण करती है कि महात्मा बुद्ध के बाद भारत में सामाजिक पुनर्जागरण का शंखनाद महायोगी गोरखनाथ जी ने किया। महायोगी गोरखनाथ जी ऐतिहासिक युग में भारतीय इतिहास के ऐसे पहले तपस्वी हैं, जिन्होंने विशुद्ध योगी होते हुए भी सामाजिक राष्ट्रीय चेतना का नेतृत्व किया।
वास्तव में उन्होंने नाथपंथ का पुनर्गठन ही सामाजिक पुनर्जागरण के लिए किया। पारलौकिक जीवन के साथ भौतिक जीवन का सामंजस्य बिठाने वाले महायोगी ने भारतीय समाज में सदाचार, नैतिकता, समानता और स्वतंत्रता की वह लौ प्रज्ज्वलित की जिसकी लपटें जाति-पांति, छुआछूत, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, पुरुष-स्त्री, विषमताओं और क्षेत्रीयतावाद जैसी प्रवृत्तियों को निरंतर जलाती रहीं।
डॉ. पद्मजा सिंह की पुस्तक यह बताती है कि नाथपंथ के विचार-दर्शन ने एक ऐसी योगी परंपरा को जन्म दिया जिसने भारतीय संस्कृति की एकाकार सामाजिक चिंतन की प्रतिष्ठा को ही अपना उद्देश्य बना लिया। वास्तव में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन की राह नाथपंथी योगियों ने गढ़ी। समस्त मध्यकालीन भक्ति साहित्य महायोगी गोरखनाथ एवं नाथपंथ की साहित्यिक चेतना से प्रतिबिंबित है।
वर्तमान दौर में गोरखपुर स्थित श्रीगोरक्षपीठ को ही नाथपंथ का निर्विवाद मुख्यालय क्यों माना जाता है, यह पुस्तक इस तथ्य को भी अत्यंत तर्कपूर्ण तरीके से स्पष्ट करती है। नाथपंथ की परंपरा के अनुसार गोरखपुर में स्थित श्रीगोरखनाथ मंदिर उसी स्थान पर है, जहां त्रेतायुग में गुरु गोरखनाथ जी ने तपस्या की थी और गहन समाधि लगाई थी। इसलिए यह नाथसिद्धों की सर्वोच्च पीठ है। श्रीगोरखनाथ मंदिर के महंत नाथयोगियों के आध्यात्मिक नेता माने जाते हैं क्योंकि नाथपंथ की परंपरा में इस मंदिर एवं पीठ के महंत एवं पीठाधीश्वर महायोगी गोरखनाथ जी के प्रतिनिधि माने जाते हैं।
नाथपंथी योगियों की यह भी मानता है कि महायोगी गोरखनाथ जी की अदृश्य उपस्थित आज भी इस मंदिर में रहती है और वे समय-समय पर इस मंदिर के महंत का मार्गदर्शन करते हैं। यही कारण है कि यहां के महंत का स्थान नाथपंथ में सर्वोच्च माना गया है। महायोगी गोरखनाथ द्वारा प्रतिष्ठित महान आध्यात्मिक आदर्श की सुरक्षा का दायित्व इस मंदिर के महंत पर ही होता है। श्रीगोरखनाथ मंदिर की यह विशेषता भी है कि इसके कपाट सभी के लिए खुले रहते हैं। इस मंदिर के सभी महंत बिना भेदभाव समाज में सभी के यहां, सभी के साथ पानी पीते हैं, भोजन करते हैं और अपने भंडारे में सभी के साथ भोजन प्रसाद ग्रहण करते हैं।
‘नाथपंथ का इतिहास’ पुस्तक मुख्यतः नौ खंडों में विभक्त है। भूमिका के पहले खंड के बाद दूसरे खंड में नाथपंथ का परिचय, तीसरे खंड में नाथपंथ के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ के बारे में विस्तार से वर्णन है। चौथे खंड में नवनाथ और चौरासी सिद्धों का सविस्तार उल्लेख है तो पांचवें खंड में नाथपंथ की महंत परंपरा, छठवें खंड में नाथयोग के दर्शन एवं स्वरूप, सातवें खंड में नाथयोग का समाज पर प्रभाव वर्णित है। जबकि आठवें खंड में नाथपंथ की सामाजिक भूमिका और नौवें खंड में नेपाल में नाथपंथ की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
मूल रूप से देवरिया जिले के नगवां खास गांव की निवासी डॉ. पद्मजा सिंह दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग से स्नातकोत्तर में गोल्ड मेडलिस्ट रही हैं। वर्तमान समय में इसी विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग में सहायक आचार्य के पद पर सेवारत डॉ. पद्मजा ने अपना शोध भी ‘नाथपंथ का उद्भव एवं विकास:एक ऐतिहासिक विवेचन’ विषय पर पूरा किया है। अपनी नवीनतम कृति ‘नाथपंथ का इतिहास’ के संदर्भ में उनका कहना है कि यह पुस्तक ऐतिहासिक स्रोतो के प्रमाणों पर आधारित लिखी गई है। नाथपंथ के इतिहास पर शोधपूर्ण विवेचन के साथ यह पुस्तक महायोगी गोरखनाथ से लेकर वर्तमान तक के नाथपंथ के इतिहास का विहंगम रेखांकन है। नाथपंथ और उससे संबंधित विषयों पर शोध करने वाले अध्येताओं के लिए यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी होगी।
(Udaipur Kiran) / प्रिंस पाण्डेय / शरद चंद्र बाजपेयी / राजेश