मंडी, 29 दिसंबर (Udaipur Kiran) । कुछ समय पहले तक आज की रात साल मे सबसे बड़ी रात मानी जाती थी और दिन सबसे छोटा। इसलिए 15 पोहा री रात एक उत्सव के रूप में मनाई जाती थी। संस्कृति मर्मज्ञ डाॅक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि मान्यता रही है कि 15 पोह से दिन चीड़ू रे साह बराबर बढ़ते-बढ़ते माघ की संक्रान्ति तक दिन बकरे की छलांग के बराबर बढ़ जाता है।15 पोह को हर गांव के देव स्थान में अनेक बकरों की बलि की परंपरा रही है। फिर इस मांस की बांडियां लगाकर गांव का हर परिवार घर ले जाकर इसे पकाते थे।तथा आज की रात दो बार भोजन करते थे।सुबह का भोजन नहवारीखाकर वर्ष भर खूंटे पर पले बकरे को लाने निकल जाते। बकरे को देव स्थान मे पहुंचाकर पुनः घर लौट कर दपैहरी का भोजन ग्रहण कर फिर मंदिर लौट जाते। यहां देवता के नाम बकरे की बलि रस्म पूरी कर सांयकाल को घर लौट आते।हर घर में 15 पोह के पवासण के रूप में भल्ले- बाबरू,हलवा आदि रात्रि के समय के पहले भोजन बैड़ीके रूप में सूर्यास्त के बाद ग्रहण करते। फिर सामुहिक रूप में ढोल नगारों की थाप पर मस्ती में झूम-झूम कर झीहरु गीत गाकर लोक गीतो पर न्च-नाचकर अनुपम छटा बिखेरते।
तकरीबन तीन-चार घंटे तक लोक संस्कृति के रंग में रंगने के बाद अपने- अपने घर लौटकर फिर पकाए गये मांस को भोजन को रात लगभग ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे दूसरी बार दनैड़ीके रूप में ग्रहण करते। इस रात पशुओं को भी रात के समय दो बार चारा खिलाया जाता था। ऐसी मान्यता है कि 15 पोह की रात को दो बार भोजन करने व पशुओं को दो बार चारा खिलानें से परिवार में वर्ष भर सुख-समृद्धि और संतोष बना रहता। लेकिन आज वक्त के साथ पांगणा ही नहीं अपितु सुकेत-मण्डी और प्रदेश भर में 15 पोह की यह परंपरा शहरी क्षेत्र मे कहीं नजर नहीं आती। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रो मे आज भी यह परंपरा बरकरार है।
सुकेत संस्कृति साहित्य और जन-कल्याण मंच पांगणा-सुुकेत के अध्यक्ष डाॅक्टर हिमेन्द्र बाली हिम का कहना है कि समय के साथ जहां ग्रामीण एकता को प्रमाणित करती अनेक धार्मिक परंपराएं लुप्त हो गई हैं वहीं वक्त के साथ 15 पोह की यह परंपरा भी लुप्त होने के कगार पर है।
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(Udaipur Kiran) / मुरारी शर्मा