रुद्रप्रयाग, 24 अगस्त (Udaipur Kiran) । प्राकृतिक आपदा की दृष्टि से देवभूमि उत्तराखंड का गढ़वाल और कुमाऊं मंडल जोन चार और पांच में शामिल है। बीते चार दशक में यहां कई बड़ी आपदायें आ चुकी हैं, जिसमें जून 2013 की आपदा को सदी की सबसे बड़ी आपदा कहा गया।
जलवायु परिवर्तन को आपदा का प्रमुख कारण माना जा रहा है, लेकिन जिस तरह से पहाड़ में नदी व गाड़-गदेरों के किनारे अनुयोजित निर्माण हो रहे हैं, वह उससे जानमाल का नुकसान कई गुना बढ़ रहा है। एक पखवाड़े के भीतर उत्तरकाशी के धराली के बाद अब जनपद चमोली के थराली में आपदा से व्यापक नुकसान हुआ है। एक स्टडी के अनुसार, 850 ईसवी से 2022 तक विश्व के 27 देशों में जीएलओएफ (ग्लेशियल लेक आउटबस्र्ट फ्लड) की 3151 घटनायें हो चुकी हैं, जो बीसवीं सदी में हुई घटनाओं की तुलना में 21वीं सदी में छह गुना अधिक है।
धराली के बाद अब थराली में आई आपदा हिमालय में बढ़ते पर्यावरणीय जोखिमों का प्रमाण है, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है। इसे जून 2013 की केदारनाथ और 2021 की रैणी आपदा की पुनरावृत्ति कहा जाय तो गलत नहीं होगा। 2023 में सिक्किम के साउथ ल्होनाक झील की घटना भी इसी तरह की आपदा का प्रमाण है। जहां 14.7 मिलियन क्यूबिक मीटर बर्फ-मलबे से बाढ़ आई थी, जिससे व्यापक नुकसान हुआ था। मौसम चक्र में बदलाव और जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नई झीलें बन रही हैं और जीएलओएफ खतरा बढ़ रहा है। बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप से परिस्थितियां निरंतर बिगड़ रही हैं। जून 2013 की केदारनाथ आपदा में तेज बारिश और मलबा तबाही का बड़ा कारण बना था।
बावजूद बीते एक दशक में समूचे पहाड़ नदियों के किनारे खुलेआम अनियोजित निर्माण हो रहा है। विकास के नाम पर मिट्टी का जमकर कटान हो रहा है। प्राकृतिक जलस्रोतों के निकासी मार्गों को बंद कर बड़े-बड़़े निर्माण हो रहे हैं, जिससे खतरा बढ़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर नवीनतम शोधों से पता चला है कि हिमालयी इलाकों में तेज वर्षा की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जो पर्यावरणीय संतुलन और आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर रही है।
बीते 5 अगस्त को उत्तरकाशी स्थित धराली गांव भागीरथी नदी और खीर गंगा के संगम पर पुराने मलबे (एल्यूवियल फैन) पर बसा हुआ है। यहां, मिट्टी, रेत, बजरी और ढीली चट्टानें हैं, जो पानी के तेज बहाव में आसानी से टूट जाती हैं। इधर, थराली में भी बादल फटने से पांच किमी दायरे में जगह-जगह मलबे के ढेर लगे हुए हैं। स्थानीय निवासी व वरिष्ठ अधिवक्ता रमेश चंद्र थपलियाल बताते हैं कि थराली बाजार से राड़ीबगड़ होते हुए चपेड़ों तक सड़क जगह-जगह टूटी हुई है।
यहां मलबे के ढेर लगे हुये हैं। एचएनबी केंद्रीय विवि के भौतिक विभाग के प्रोफसर व हिमालयी वातावरणीय एवं अंतरिक्ष भौतिकी शोध प्रयोगशाला के मुख्य अन्वेषक डा. आलोक सागर गौतम का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में कई गांव, कस्बे और बाजार पुराने भूस्खलन मलबे, ढलानों की कमजोर परतों और नदी किनारों पर जमी तलछट पर बसे हुये हैं, जो कभी भी भूकंप या पानी के सैलाब से तबाह हो सकते हैं। आपदा से नुकसान कम से कम हो, इसके लिए सुनियोजित विकास, भूकंपरोधी निर्माण और जल निकासी के लिए ठोस नीति की जरूरत है।
(Udaipur Kiran) / दीप्ति
