Uttar Pradesh

सुलतानपुर का ऐतिहासिक दुर्गा पूजा महोत्सव : पहली बार आठ कहार की डोली से निकली थी विसर्जन शोभायात्रा

फाईल फोटो  दुर्गा पूजा
प्रतीक फोटो

सुलतानपुर, 30 सितंबर (Udaipur Kiran News) । उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले मे सर्वप्रथम स्थापित की गई मूर्तियों को कंहार डोली पर उठाकर चलते थे, जिसमें एक मूर्ति को उठाये जाने के लिये आठ कहार लगते थे। जो कि अब ट्रैक्टरों पर बिजली की जगमगाहट के साथ क्रमबद्ध झांकी के रुप में निकलती हैं। जिले की पहचान और गौरव दुर्गापूजा महोत्सव के रुप में इसलिये और बढ़ गया कि दशमी के दिन देश व प्रदेश के अन्दर मूर्तियां विसर्जित कर दी जाती हैं, पर यहां कुछ अलग ही परम्परा का इतिहास है।

केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति के महामन्त्री सुनील श्रीवास्तव ने मंगलवार को बताया कि आज भिखारीलाल सोनी इस दुनिया में नहीं है, पर उनके द्वारा रखी गई दुर्गापूजा महोत्सव की नींव मजबूत से मजबूत होती चली आ रही है। उनका जनपद गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल है । वह इस बुनियाद पर कि पूर्व में दुर्गापूजा महोत्सव के दौरान मुस्लिम समुदाय के मोहर्रम और बारह रबीउल अव्वल का पर्व एक साथ पड़ गया था फिर भी यहां बिना विवाद के सकुशल संपन्न हुआ। समितियों में मुस्लिम सदस्य भी है और तमाम् मुस्लिम विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दुर्गा भक्तो के सहयोग में लगे रहते है। आज दुर्गापूजा महोत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कंधे से कंधा जोड़ सौहादर्य बनाये रखने के लिये जुटे रहते हैं।

शहर की कोई गली कोई कोना बाकी नही, जहां इस ऐतिहासिक उत्सव की धूम न हो। शहर एक पखवाड़े रात दिन जगता है। छह दशकों से चला आ रहा यह समारोह केवल हिन्दुओं का पर्व न होकर सुलतानपुर का महापर्व बन चुका है। प्रशासन भी यहां की गंगा जमुनी तहजीब को देखकर पूरी तरह आश्वस्त रहता है। यहां रहने वाले किसी भी मजहब के लोग जिस तरह इस महापर्व में बढ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और एक मिसाल कायम किये हुए हैं ।

दशमी के दिन रावण का पुतला फूके जाने के पूर्व नौ दिनों तक शहर के रामलीला मैदान में सम्पूर्ण रामलीला की झांकी प्रस्तुत की जाती है और उसके बाद दशमी के दिन से सात दिनों दुर्गापूजा मेले का आयोजन होता है। जिसमें भरत-मिलाप से लेकर विविध कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इतना ही नहीं जनपद को देश के अन्दर पहला स्थान मिलने का एक मुख्य वजह यह है कि वर्ष 1983 के बाद से शहर के अन्दर जगह-जगह अनेक मंदिरों का दृश्य कारीगरों द्वारा पंडाल के रुप में देखने को मिलता रहा है। जिसमें करीब 10लाख से अधिक का खर्च आता है, साथ ही आने वाले दूर दराज के लोगों के लिये विशाल भंडारे के आयोजन के साथ दवा से लेकर हर आवश्यक सुविधा स्थानीय स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा यहां मुहैया कराई जाती है।

सप्ताह भर चलने वाले इस कार्यक्रम का समापन विसर्जन के रुप में करीब 36 घंटों के बाद सीताकुंड घाट पर होता है। जिसे देखने के लिये आसपास जिलों के हजारों लोग जमा होते है। ऐसे में शहर के अंदर तिल रखने की भी जगह नहीं होती।

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(Udaipur Kiran) / दयाशंकर गुप्त

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