Madhya Pradesh

धर्म ही असली एलआईसी जो जीवन भर और जीवन के बाद भी देता है सुरक्षा कवच : मुनिश्री

धर्म ही असली एलआईसी जो जीवन भर और जीवन के बाद भी देता है सुरक्षा कवच-मुनिश्री

गुन, 18 जुलाई (Udaipur Kiran) । पुण्य के उदय से प्राप्त धन संपदा मीठा जहर है। जो भी वस्तु हमें अपनी आंखों से दिख रही है वह सब अनित्य है। एक न एक दिन नष्ट होने वाली है। एकमात्र धर्म ही है जो जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी एलआईसी की तरह है। उक्त धर्मोपदेश मुनिश्री निर्मोह सागरजी महाराज ने चातुर्मास के दौरान कार्तिकेअनुप्रेक्षा ग्रंथ का स्वाध्याय कराते हुए शुक्रवार को धर्मसभा में दिए। इस मौके पर उन्होंने अनित्य भावना को समझाते हुए कहा कि पूर्व पुण्य के योग से हमें मनुष्य पर्याय उसमें भी उच्च कुल, अपार धन संपदा मिला है तो यह सब कुछ मीठा जहर की तरह है। जो हमें धर्म से दूर करके व्यसनों की ओर ले जाती है। वह धनाढ्य अमीर व्यक्ति प्रभु को भूलकर कुसंगति में व्यसनों में ही सुख मान बैठता है।

कबीरदास जी ने कहा भी है दुख में सुमरन सब करें, सुख में करें न कोय। जो सुख में सुमरन करें तो दुख काहे को होय। मुनिश्री ने कहा कि ऐसा व्यक्ति सच्चे देव, शास्त्र और गुरु को भूलकर पुण्य से ही प्राप्त धन संपदा को ही भगवान मान लेता है और कुसंगति, व्यसनों में पड?र वह नरक, तृयंच गति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। क्योंकि जो अपनी चर्म चाक्षुओं से दिख रहा है वह सब कुछ अनित्य है। पानी के बुलबुला के समान, हाथी के कान और दीपक की लौ के समान होता है। वह स्थिर नहीं रहते, एक न एक दिन नष्ट हो जाते हैं।

मुनिश्री ने सुनाई गरीब भक्त के अमीर होने की दास्तानं

इस दौरान मुनिश्री निर्मोह सागरजी महाराज ने एक सत्य घटना को अपने मुख से समझाते हुए कहा कि एक श्रावक अपनी दरिद्रता गरीबी का मारा था। दोनों समय का भोजन भी नसीब नहीं होता था चूंकि वह पूर्व जन्म में बहुत संपन्न था, मगर धर्म से विमुख होकर सारी धन संपदा नष्ट कर चुका था। एक बार वहीं व्यक्ति आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के पास पहुंचा और उसने अपनी दरिद्रता की पूरी बात बताई। यह सब सुनकर आचार्यश्री ने एक शब्द बोला प्रतिदिन कुछ न कुछ दान करो, 1 रुपए ही प्रतिदिन दान करो पर करो जरूर। उसने नमोस्तु कर मन में दान के भाव लेकर प्रतिदिन कुछ न कुछ दान करना चालू कर दिया।

आचार्यश्री के आशीर्वाद से उस व्यक्ति की किस्मत पलट गई और वह प्रतिदिन जो भी साधुजन मिलते उन्हें आहारदान मंदिरों में सामर्थानुसार करता रहा। दो वर्ष बाद ही वही व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शन करने चार पहिया वाहन में गाड़ी में बैठकर आया, उस समय आचार्यश्री जंगल जा रहे थे। वह रास्ते में गाड़ी से उतरकर पैरों में गिर गया और नमोस्तु-नमोस्तु करने लगा। आचार्यश्री ने साथ में चल रहे मुनिराजों से पूछा यह वही व्यक्ति लग रहा है जो उस दिन अपनी गरीबी की दास्तानं सुना रहा था। इसी बीच वह बोला जी हां गुरुजी मैं वही व्यक्ति है। आपके आशीर्वाद से दान की प्रेरणा से मेरा जीवन ही बदल गया। अब आप जहां जैसे कहेंगे मेरा जीवन आपके चरणों में समर्पित है।

इस अवसर पर मुनिश्री ने मन को बंदर की उपमा देते हुए कहा कि अपना मन बंदर की भांति छलांग मारता रहता है। वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। जिसने अपने मन को वश में कर लिया है वह व्यक्ति मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ता चला जाता है। हमें मन के अनुसार नहीं अपने अनुसार मन को चलाना चाहिए। तभी हम एक न एक दिन सम्यत्व के सम्मुख पहुंच सकते हैं।

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(Udaipur Kiran) / अभिषेक शर्मा

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