Uttar Pradesh

साहित्य के इतिहास की दृष्टि समाज की अंतरदृष्टि से प्रभावित : प्रो. नंदकिशोर

सम्बोधित करते वक्ता एवं अतिथिगण

–इविवि में रामस्वरूप चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यानमाला

प्रयागराज, 24 अक्टूबर (Udaipur Kiran) । रामस्वरूप चतुर्वेदी स्मृति आयोजन समिति और राजभाषा अनुभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में पिछले 10 वर्षों की परम्परानुसार इस वर्ष शुक्रवार को इविवि के तिलक भवन में रामस्वरूप चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यानमाला के दसवें व्याख्यान के अंतर्गत सुप्रसिद्ध कवि एवं प्रख्यात आचार्य प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने साहित्य का इतिहास दर्शन पर अपना वक्तव्य दिया।

उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या किसी कृति का आस्वाद उस भाषा के इतिहास की परम्परा को जाने बिना किया जा सकता है? वे कहते हैं कि मैं मानता हूँ कि इतिहास के जाने बिना भी किसी कृति को पढ़ा जा सकता है। लेकिन यह अनुभूत्यात्मक ज्ञान होता है जो हम अपनी अनुभूति के आधार पर अर्जित करते हैं। लेकिन किसी कृति के मौलिक अवदान और सौंदर्यशास्त्र के निर्धारण के लिए इतिहास और परम्परा को जानना बहुत आवश्यक है। कृति की मौलिकता को प्रमुख चीज मानने वाले भी इतिहास की आवश्यकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। इतिहास केवल बीते काल की घटनाओं की सूचना ही नहीं देता बल्कि वर्तमान को प्रभावित भी करता है। साहित्य के इतिहास की दृष्टि समाज की अंतरदृष्टि से प्रभावित होती है।

उन्होंने आगे कहा कि किसी कृति के लेखक के लिए इतिहास दृष्टि जितनी महत्वपूर्ण होती है, पाठक और अध्येता के लिए भी यह उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। कोई महान कृति कालजयी होते हुए भी कालबद्ध नहीं होती। हर युग में ऐसे रचनाकार मिल जाते हैं जो अपने समय और समाज की लाक्षणिकता से परे जाते हैं। ऐतिहासिक विकास की यह प्रक्रिया आधार और अधिरचना को निरंतर परिवर्तनशील मानती है। उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद की चर्चा करते हुए बताया कि प्रत्येक युग के लेखकों के अवदान के आधार पर उस युग की प्रवृत्ति और इतिहास दर्शन को रेखांकित किया जाता है। साहित्य मूलतः एक भाषिक और सृजनात्मक प्रक्रिया है।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं उपन्यासकार हेरम्ब चतुर्वेदी ने हेरोडोटस के उदाहरण को उद्धृत करते हुए कहा कि साहित्य, कला, आध्यात्म और दर्शन इन सबकी उत्पति मेथोलॉजी से होती है। भाषा की व्युत्पत्ति के अध्ययन से इतिहास की दृष्टि मिलती है। वे कहते हैं कि चतुर्वेदीजी की ‘भाषा और संवेदना का विकास’ इस प्रक्रिया को समझने के लिए एक मुकम्मल किताब साबित होती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अध्ययनशील स्वभाव के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि उनका अध्ययन ऐसा था कि किताबों के हाशिये उनके नोट्स से भरे होते थे। अपने शोध लेखन से पहले वे ‘शरद के नारी पात्र’ नामक पुस्तक लिख चुके थे। यह पुस्तक संस्कृति और संवेदना की व्यापक पृष्ठभूमि पर इतिहास की रचना करती है।

विशिष्ट वक्ता आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी के सुपुत्र और वर्ल्ड बैंक, वाशिंगटन डी.सी. के पूर्व आर्थिक सलाहकार डॉ.विनय स्वरूप ने अपने पिता के जीवन की कुछ घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से बताया कि उनका जीवन एक ईमानदार, जिज्ञासु और कर्तव्यपरायण व्यक्ति का सीधा-सादा जीवन रहा है। उनका पूरा जीवन सादगी और कर्तव्य से परिपूर्ण जीवन था जिसका व्यापक असर हम पारिवारिक सदस्यों पर पड़ा। उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति इस तरीके से थी कि वे अमेरिका में भी पुस्तकों की दुकानों पर रुककर किताबें खरीदते थे और गहन अध्ययन-मनन के माध्यम से अपनी राय बनाते थे।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी एवं भारतीय भाषा विभाग में आचार्य प्रो. कुमार वीरेंद्र ने स्वागत वक्तव्य दिया। कहा कि कई लेखक अपनी आत्मकथा लिखने से बचते रहे हैं वहीं चतुर्वेदी जी ने ‘आलोचकथा’ नाम से अपना आत्मवृत्त लिखा। उन्होंने बताया कि चतुर्वेदी जी के तर्क जितने प्रखर और तीखे होते थे उनकी भाषा और शैली उतनी ही सहज और सधी हुई होती थी। उन्होंने हिन्दी आलोचना को आधुनिक काल की ओर मोड़ा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा ने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सहयोगी वातावरण से यह शृंखला निरंतर चल रही है और उम्मीद है आगे भी चलती रहेगी। कार्यक्रम का संचालन इविवि के हिन्दी एवं भारतीय भाषा विभाग में सहायक आचार्य डॉ. दीनानाथ मौर्या और धन्यवाद ज्ञापन राजभाषा कार्यान्वयन समिति की सदस्य प्रो. रचना गौड़ ने किया।

—————

(Udaipur Kiran) / विद्याकांत मिश्र

Most Popular

To Top