Uttar Pradesh

संविधान के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए संवैधानिक नैतिकता की आवश्यकता

सुबीर भटनागर

लखनऊ, 26 नवंबर (Udaipur Kiran) । भारत का संविधान अपनाने के उपलक्ष्य में हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है। भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को भारत के संविधान को अपनाया था, मगर यह 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। इस दिवस विशेष पर (Udaipur Kiran) ने डॉ राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय लखनऊ के पूर्व कुलपति प्रोफेसर सुबीर भटनागर से खास बातचीत की।

सवाल : देश के संविधान को किन कारकों से खतरा है और इसे बचाने के लिए किस प्रकार के प्रयास करने चाहिए ?

जवाब : प्रोफेसर सुबीर भटनागर ने कहा कि पहले हमें यह समझना होगा कि संविधान और उसकी मूल आत्मा क्या है ? उन्होंने बताया कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में यह चेतावनी दी थी कि संविधान के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए संवैधानिक नैतिकता की आवश्यकता होगी। इस नैतिकता को मन में, व्यवहार में उतारना होगा। भारतीयों में यह नैतिकता प्राकृतिक रूप से नहीं है, अतएव संविधान को दृष्टि में रखते हुए हर भारतीय को एक नई नैतिकता को कृत्रिम रूप से गढ़ना होगा। संविधान कितना भी अच्छा हो, परन्तु उसका संचालन करने वाले लोग यदि अच्छे नहीं हैं तो अच्छा संविधान भी असफल हो जाएगा। संवैधानिक नैतिकता का पालन राजनेता, अधिकारी और सभी नागरिकों द्वारा किया जाए तभी संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है और देश के खुशहाली सूचकांक में बढ़ोतरी हो सकती है।

सवाल : भारत के संविधान का लक्ष्य क्या है ?

जवाब : इस सवाल पर बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर (मानवाधिकार) सुबीर भटनागर का कहना है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है जिसका उद्देश्य हर ग़रीब की आंख से हर आंसू को पोंछना है। अंत्योदय ही चरम संवैधानिक लक्ष्य है। संविधान ने देश को समृद्ध राष्ट्र बनाने के लिए सरकारों को अनेक शक्तियां दी हैं पर इन शक्तियों का उपयोग संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु ही करना है। इन शक्तियों का उपयोग संवैधानिक दायरे में रह कर ही किया जाना चाहिए। ‘रूल ऑफ लॉ’ का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह संविधान का मूल तत्व है। समृद्ध राष्ट्र में सामाजिक न्याय का वास होना चाहिए, लोगों की बुनियादी ज़रूरतें का पूरा होना , रोज़गार प्राप्त होना आदि भी ज़रूरी है।

प्रोफेसर भटनागर का कहना है कि सामाजिक न्याय संविधान की मुख्य धुन (signature tune) है। विधि के शासन राज्य में जनकल्याण के कार्य भी मनमर्ज़ी के कानूनों और नियमों के द्वारा नहीं किए जा सकते हैं। कानून बनाने वाली संसद या विधान सभाएं किसी भी हालत में संविधान से ऊपर नहीं हैं। विधेयकों पर संसद, विधान सभा में समुचित और खुली बहस होनी चाहिए।

सवाल : संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी से क्या आशय है ?

जवाब : प्रोफेसर भटनागर का कहना है कि हम भारत के लोगों की स्वतंत्रता को संविधान ने नहीं दिया है, बल्कि संविधान में हम नागरिकों ने इस गारंटी को लिखा है। जनतंत्र को जीवित रखने के लिए बोलने की स्वतंत्रता आवश्यक है। इस स्वतंत्रता के द्वारा ही समाज में मुक्त बहस होती है। न्यायालयों को इसकी रक्षा करनी चाहिए, परन्तु कई मामलों में कोर्ट इसकी समुचित रक्षा करने में अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा पा सके हैं। इसी प्रकार, स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि ज़मानत देना नियम है और जेल भेजना अपवाद है। परन्तु जनपद न्यायालय इसका पालन करने से हिचकते हैं और वहां ज़मानत मिलना लगभग असंभव सा हो गया है। विचारणीय यह कि उच्च न्यायालयों में भी ज़मानत के मामले कई महीनों तक लंबित रहते हैं। आमजन को लगने लगा है कि देश में संविधान का शासन ना होकर किसी न्यायाधीश का शासन है। नागरिकों की संविधान में, न्याय व्यवस्था में आस्था बनी रहनी चाहिए। संविधान की सफलता में नागरिकों की आस्था की सबसे बड़ी भूमिका होती है। पिछले कुछ वर्षों में नागरिकों में संविधान की श्रेष्ठता तथा उपयोगिता के बारे में नई चेतना का संचार होता देखा जा रहा है। आजकल धरने में, प्रदर्शनों में, राजनीतिक जमावड़ों में संविधान की प्रति हाथों में लहराई जा रही है। 1950 में संविधान लागू होने के बाद इस तरह संवैधानिक प्रस्फुरण और संवैधानिक जागरूकता पहली बार देखने को मिल रहे है, इसका एक अर्थ यह भी है कि नागरिक यह जतलाना चाह रहे हैं कि संविधान न्यायालय में बहस करने वाली एक पुस्तक मात्र नहीं है बल्कि जन गण के मन में बसने वाली एक पवित्र आकांक्षा है।

सवाल : वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में कैसे होगी संविधान की रक्षा ?

जवाब : इस सवाल पर प्रोफ़ेसर भटनागर का जवाब सबसे महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि संविधान की रक्षा करने में उच्चतम और उच्च न्यायालयों की विशेष भूमिका है, गुरुत्तर दायित्व है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई निर्णय आए हैं जिसमें न्यायपालिका सुदृढ़ रूप से खड़ी होती नज़र नहीं आई है, ज्यूडिशियरी को कभी कभी संविधान की रक्षा के लिए ताक़त भी दिखाने को तत्पर रहना चाहिए। आने वाले समय में संविधान पर आघातों या चुनौतियों का सामना करने के लिए सिविल सोसाइटी और न्यायालयों को मिल कर काम करने के लिए तत्पर रहना होगा।

सवाल : राजनीतिक एक दूसरे पर संविधान विरोधी होने का आरोप लगाते हैं इसे आप किस रूप में देखते हैं ?

जवाब : ये सब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप हैं। वे आपस में एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं और यह बहस का मुद्दा है लेकिन मेरा मानना है कि दलों के इन आरोपों की एक वजह अपना वोट बैंक बढ़ाना भी है।

(Udaipur Kiran) /शिव सिंह

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(Udaipur Kiran) / दिलीप शुक्ला