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हत्या की साझा मंशा सिद्ध करने को सिर्फ ’मारो साले को’ कहना काफी नहीं

इलाहाबाद हाईकोर्ट का छाया चित्र

–उच्च न्यायालय के फैसले से 41 साल बाद मिली दोषमुक्ति

प्रयागराज, 20 अगस्त (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के तहत सामान्य आशय के सिद्धांत पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए हत्या के मामले में 41 साल पहले दोषी ठहराए और उम्रकैद की सजा पाए व्यक्ति को बरी कर दिया है।

कोर्ट ने कहा कि किसी भी ठोस कदम के बिना केवल घटनास्थल पर उपस्थिति और “मारो साले को“ कहकर उकसाना हत्या के लिए सामान्य आशय को संदेह से परे साबित करने के लिए नकाफी है। यह आदेश न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह एवं न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह की खंडपीठ ने विजई उर्फ बब्बन की आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए दिया है। इसी के साथ कोर्ट ने झांसी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के 20 अक्टूबर 1984 के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया।

अभियोजन पक्ष के अनुसार 17 दिसम्बर 1983 को दर्ज एफआईआर के अनुसार बशीर शाह (मृतक) और उसका दोस्त महेंद्र घर लौट रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात विजई उर्फ बब्बन और सह अभियुक्त नरेंद्र कुमार से हुई। नरेंद्र ने बशीर शाह पर कांति नामक महिला के साथ उसके संबंधों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते हुए विवाद शुरू कर दिया। बशीर ने आरोपों से इनकार किया। उसी समय विजई उर्फ बब्बन ने “मारो साले को“ कहकर उकसाया। इसके तुरंत बाद सह अभियुक्त नरेंद्र ने चाकू निकालकर बशीर शाह पर तीन-चार घातक वार किए, जिससे बाद उसकी मृत्यु हो गई।

सत्र अदालत ने नरेंद्र कुमार और विजई उर्फ बब्बन को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत सामान्य आशय से हत्या करने के लिए दोषी पाया। नरेंद्र कुमार की अपील के लंबित रहने के दौरान मृत्यु हो गई और उसके खिलाफ कार्यवाही समाप्त कर दी गई।

हाईकोर्ट में विजई की ओर से एमिकस क्यूरी मित्र राजीव लोचन शुक्ल ने तर्क दिया कि घातक चोटें पहुंचाने की मुख्य भूमिका केवल मृतक सह अभियुक्त नरेंद्र की थी। अपीलार्थी की भूमिका केवल उकसाने तक सीमित थी। उन्होंने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष हत्या के लिए पूर्व नियोजित योजना या साझा सामान्य आशय स्थापित करने में विफल रहा। यह भी दलील दी कि “मारो साले को“ जैसे वाक्यांश अक्सर मामूली झगड़ों में उपयोग किए जाते हैं और इसका मतलब जरूरी नहीं कि मारने का इरादा हो, खासकर जब पूर्व-नियोजन का कोई सबूत नहीं था।

अभियोजन की ओर से एजीए ने तर्क दिया कि सामान्य आशय मौके पर भी विकसित हो सकता है और अपीलार्थी का मारो साले को कहना साझा इरादे को प्रदर्शित करने वाला स्पष्ट कार्य था। कोर्ट ने पाया कि दोनों पक्षों के बीच मुलाकात आकस्मिक घटना थी। क्योंकि किसी भी गवाह ने यह नहीं कहा कि आरोपी घटनास्थल पर खड़े थे और मृतक का इंतजार कर रहे थे।

कोर्ट ने प्राथमिकी और अदालती गवाही के बीच विसंगतियां पाईं। प्राथमिकी में केवल अपीलार्थी का मारो साले को का उल्लेख था, अदालत में परिवादी ने यह भी जोड़ा कि अपीलार्थी ने चाकू भी लहराया था और गवाहों को धमकी दी थी। कोर्ट ने इसे ट्रायल के दौरान किया गया एक भौतिक सुधार माना, जिसने अभियोजन कहानी पर संदेह पैदा किया। कोर्ट ने यह भी पाया कि केवल उपस्थिति सामान्य आशय स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। कोर्ट ने उस गवाही पर प्रकाश डाला जिसमें यह कहा गया था कि अपीलार्थी और मुख्य हमलावर के एक ही महिला के सम्बंध में परस्पर विरोधी हित थे, जिससे यह असंभव हो जाता है कि वे मृतक को मारने का इरादा साझा करेंगे। कोर्ट ने दोहराया कि उकसावे का सबूत अपनी प्रकृति में कमजोर सबूत होता है। कोर्ट ने कहा कि “मारो साले को“ शब्द अस्पष्ट हैं और “यह नहीं कहा जा सकता कि उसने अपने साथियों को मारने के लिए उकसाया था।

कोर्ट ने अपीलार्थी के खिलाफ सबूतों को कमजोर और संदेह से परे सबूत के मानक को पूरा करने के लिए नकाफी पाते हुए, अपील मंजूर कर ली। कोर्ट ने कहा कि अपीलार्थी की भूमिका सामान्य उकसावे की है, जो एक कमजोर सबूत है। इतने कमजोर सबूतों पर अभियुक्त को संदेह से परे सबूत की कसौटी पर इतने जघन्य अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसी के साथ कोर्ट ने दोषसिद्धि और सजा रद्द करते हुए विजई उर्फ बब्बन को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसे तत्काल जेल से रिहा करने का निर्देश दिया है।

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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे

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