
कोलकाता, 26 जुलाई (Udaipur Kiran) । पश्चिम बंगाल में हर दिन औसतन 25 लोग पानी में डूबकर जान गंवा रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से आधे पीड़ित बच्चे हैं। विश्व जल डूब रोकथाम दिवस के मौके पर जारी नये अध्ययन में राज्य में डूबने से होने वाली मौतों की भयावह सच्चाई को उजागर किया गया है। यह अध्ययन जॉर्ज इंस्टिट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ ने किया है, जिसे देश में अब तक का सबसे बड़ा सामुदायिक स्तर का डूबने संबंधी सर्वे बताया गया है।
इस अध्ययन में राज्य के सभी 23 जिलों की एक करोड़ 80 लाख की आबादी को कवर किया गया और करीब 15 हजार समुदाय के लोगों से जानकारी जुटाई गई। शुक्रवार रात जारी रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 9,191 लोग डूबकर जान गंवाते हैं, जो पहले के आधिकारिक आंकड़ों से तीन गुना ज्यादा है।
जॉर्ज इंस्टिट्यूट की डॉ. मेधावी गुप्ता ने कहा, “ग्रामीण इलाकों में डूबने की घटनाएं बड़ी त्रासदी बन चुकी हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चों की मौत की रिपोर्टिंग नहीं होती, जिससे असल आंकड़े सामने नहीं आ पाते। स्वास्थ्य तंत्र की कमजोरियां भी आंकड़ों को नीचे दिखाती हैं।”
रिपोर्ट में बताया गया है कि डूबने से मरने वालों में सबसे अधिक जोखिम एक से 9 साल के बच्चों को है। अकेले एक से दो साल के बच्चों में खतरा 30 प्रतिशत ज्यादा होता है। चौंकाने वाली बात यह है कि ज्यादातर हादसे दोपहर 12 बजे से दो बजे के बीच और घर से महज 50 मीटर के दायरे में होते हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 93 प्रतिशत मामलों में बच्चे उस वक्त डूबे जब आसपास कोई वयस्क मौजूद नहीं था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन, भारत के डॉ. बी. मोहम्मद असील ने कहा कि पिछले दो दशकों में दुनियाभर में डूबने से होने वाली मौतों में 38 प्रतिशत की कमी आई है, लेकिन निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हालात अभी भी खराब हैं। उन्होंने कहा, “डूबने की रोकथाम के लिए हमारे पास कारगर उपाय पहले से मौजूद हैं, अब ज़रूरत है उन्हें ज़मीन पर लागू करने की।”
रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकांश मामलों में बचाव के प्रयास या तो नहीं हुए या फिर बेहद गलत तरीके से किए गए। कई मामलों में उल्टी कराना या बच्चे को उल्टा घुमा देना जैसे अवैज्ञानिक उपाय अपनाए गए। केवल 10 प्रतिशत पीड़ितों को सही तरीके से सीपीआर (कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन) दिया गया और केवल 12 प्रतिशत मामलों में चिकित्सकीय सहायता ली गई।
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि तालाबों और जलाशयों के आसपास बाड़ लगाने जैसे उपाय छोटे बच्चों की सुरक्षा के लिए जरूरी हैं। इसके अलावा सामुदायिक स्तर पर सीपीआर और बचाव प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए क्योंकि 90 प्रतिशत मामलों में पहला रेस्पॉन्डर कोई आम ग्रामीण ही होता है। इसके साथ ही बच्चों को तैराकी की प्रारंभिक ट्रेनिंग भी दीर्घकालिक समाधान के तौर पर सामने आया है।
यह अध्ययन ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रॉपीज़ के सहयोग और चाइल्ड इन नीड इंस्टिट्यूट (सीआईएनआई) के साथ मिलकर किया गया है।
सीआईएनआई के नेशनल एडवोकेसी ऑफिसर सुजॉय रॉय ने कहा कि ये सभी मौतें 100 प्रतिशत रोकी जा सकती हैं। अगर छोटे बच्चों पर थोड़ी सी निगरानी रखी जाए, तो हर जान बचाई जा सकती है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि 25 मौतों का यह आंकड़ा काफी सतही है, एक और गहराई से किया गया अध्ययन और भी गंभीर तस्वीर पेश कर सकता है।—-
(Udaipur Kiran) / ओम पराशर
