
धर्मशाला, 04 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) । तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने कहा कि हम सभी समान हैं, क्योंकि हम सभी सुखी रहना चाहते हैं और हममें से कोई भी दुःख नहीं चाहता। दुनिया में कई धार्मिक मार्ग हैं, लेकिन तिब्बत में हम नालंदा परंपरा का पालन करते हैं और नागार्जुन और असंग जैसे आचार्यों और उनके अनुयायियों के कार्यों का अध्ययन करते हैं। दलाई लामा ने यह विचार शानिवार को मैक्लोडगंज स्थित मुख्य बौद्ध मठ चुगलाखंग में ताईवानी और अन्य बौद्ध अनुयायियों को संबोधित करते हुए रखे।
उन्होंने कहा कि हम जिस बुद्ध धर्म परंपरा का पालन करते हैं, वह इस मायने में अद्वितीय है कि यह तर्क और युक्ति का अनुसरण करती है। इसमें हमारे मन और भावनाओं की कार्यप्रणाली की जटिल व्याख्याएं भी शामिल हैं। यह वह परंपरा है जिसे हमने पूरी तरह से संरक्षित रखा है। आज पश्चिम के वे लोग जिनका धर्म से कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है, हमारी परंपरा में रुचि ले रहे हैं। उनमें ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जो मन और भावनाओं के बारे में अधिक जानने के लिए विशेष रूप से उत्सुक हैं।
दलाई लामा ने कहा कि जब मैं चीनी कम्युनिस्ट शासन में रह रहा था, तो अक्सर ऐसी परिस्थितियां आती थीं जो मुझे क्रोधित कर सकती थीं, लेकिन फिर 1959 में मैं तिब्बत से भारत आ गया। बौद्ध परंपरा में मेरी गहरी आस्था और प्रशंसा है, जो हमें अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने और अपने मन को बदलने में सक्षम बनाती है। यदि आप एक स्नेही हृदय के साथ-साथ बोधिचित्त भी विकसित कर सकते हैं, और इस दृष्टिकोण को अपने करीबी लोगों के साथ साझा कर सकते हैं, तो आप तनावमुक्त और सहज महसूस करेंगे और जिन लोगों से आप जुड़े हैं, वे भी खुश रहेंगे।
धर्मगुरु ने कहा कि जब मैं बीजिंग में था, तो मैं माओत्से तुंग से कई बार मिला और एक बार उन्होंने मुझे पूरी गंभीरता से कहा कि धर्म ज़हर है। मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे उन पर तरस आया क्योंकि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि आध्यात्मिक अभ्यास कितना लाभदायक हो सकता है। दलाई लामा ने शनिवार को ताईवानी श्रद्धालुओं सहित अन्य देशों से आये अनुयायियों और स्थानीय तिब्बती समुदाय के लोगों को प्रवचन दिए।
(Udaipur Kiran) / सतेंद्र धलारिया
