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संघ का शताब्दी वर्ष उत्सव का नहीं बल्कि आत्मनिरीक्षण और संकल्प का अवसर है- अरुण कुमार

अरुणा कुमार्
कार्यक्रम में उपस्थित स्वयंसेवक

जयपुर, 2 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह अरुण कुमार ने कहा कि संघ का यह शताब्दी यात्रा का अवसर उत्सव की तरह नहीं, बल्कि आत्मविश्लेषण, कार्य की समीक्षा और नए संकल्प लेने का है। हमें यह देखना होगा कि सौ साल की इस यात्रा में हमने क्या पाया और कितना कार्य शेष है। आने वाले वर्षों में गति बढ़ाकर राष्ट्र निर्माण की दिशा में और अधिक प्रभावी भूमिका निभाना ही संघ का लक्ष्य होगा। उन्होंने कहा कि संघ की स्थापना सौ वर्ष पूर्व अत्यंत सीमित साधनों के साथ हुई थी। न बड़े नेता थे, न आकर्षक नारे, न ही पर्याप्त संसाधन। इसके बावजूद संघ ने निरंतरता के साथ समाज में अपनी पहचान बनाई और आज यह समाज जीवन के केंद्र में खड़ा है।

सह सरकार्यवाह अरुण कुमार गुरुवार को जयपुर के सीकर रोड़ पर हरमाड़ा नगर की हेडगेवार बस्ती के विजयदशमी उत्सव और शस्त्र पूजन कार्यक्रम में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि आज का दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह महात्मा गांधी जी और लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिवस भी है। गांधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम को ‘स्वराज्य, स्वधर्म और स्वदेशी’ से जोड़ा तथा ग्राम स्वराज्य और रामराज्य की कल्पना दी। लाल बहादुर शास्त्री जी का जीवन सादगी, ईमानदारी और निर्भीक नेतृत्व का आदर्श रहा।

उन्होंने कहा कि संघ की यात्रा कठिनाइयों और विरोधों से भरी रही, फिर भी यह लगातार आगे बढ़ती रही। कार्यकर्ताओं के मन में यह विश्वास था कि यह कार्य अंततः सफल होगा, उन्होंने कभी निराशा नहीं मानी और लगातार अपने प्रयासों में लगे रहे। संगठन और उसकी कार्यपद्धति में विश्वास बनाए रखने के कारण सामान्य व्यक्ति से लेकर नेतृत्व तक सभी ने निष्ठा दिखाई। संघ ने किसी को विरोधी नहीं माना। चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियां आईं, चाहे आपातकाल जैसी स्थिति रही, संघ ने फॉरगेट एंड फॉरगिव का मार्ग अपनाया। 1977 के आपातकाल में सवा लाख लोग जेल में गए, कई की पढ़ाई और व्यवसाय प्रभावित हुए। समाज में गुस्सा और विरोध था, लेकिन संघ ने हमेशा शांतिपूर्ण और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया। संघ मानता है कि दो ही प्रकार के लोग हैं- एक जो संघ में शामिल हो चुके हैं और दूसरे जो आने वाले हैं। संघ कभी किसी को विरोधी नहीं मानता; विरोध करने वाला भी सीखकर और समझकर अपने मार्ग पर आ सकता है।

सह सरकार्यवाह ने कहा कि संघ की सबसे बड़ी विशेषता निरंतरता और सनातन दृष्टि है। भारत विश्व का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और उसकी विशेषता केवल प्राचीनता नहीं बल्कि सतत प्रवाह है। यही प्रवाह संघ की यात्रा में भी दिखाई देता है। आज समाज के विविध वर्गों में संघ कार्य के प्रति विश्वास और सद्भाव का वातावरण बना है, जो स्वयंसेवकों के लिए गर्व का विषय होने के साथ-साथ उत्तरदायित्व का बोध भी कराता है।

उन्होंने कहा कि आज विजयदशमी के इस पावन अवसर पर तीन मुख्य बातों पर विचार करना आवश्यक है। पहली, संघ की 100 वर्षों की यात्रा क्या रही और उसका स्वरूप कैसा रहा। दूसरी, इस यात्रा का अगला चरण क्या होगा। तीसरी, उस अगले चरण की प्राप्ति के लिए आगामी एक वर्ष में हमें क्या करना होगा। संघ की यह शताब्दी यात्रा अत्यंत महत्व की है। किसी भी कार्य की सफलता के तीन प्रमुख आधार होते हैं- साध्य, साधन और साधक। साध्य का अर्थ है हमें क्या प्राप्त करना है, साधन का अर्थ है लक्ष्य की प्राप्ति का उपाय या मार्ग क्या है, और साधक का अर्थ है कि लक्ष्य को कौन पूरा करेगा। यही तीनों पहलू संघ की यात्रा के मूल में निहित हैं। जहां तक साध्य का प्रश्न है, वह पूर्णतः स्पष्ट है। हम अपनी प्रार्थना में प्रतिदिन स्मरण करते हैं कि हमारा एकमात्र सपना राष्ट्र के परम वैभव की प्राप्ति है। इसका आशय यह है कि समाज सर्वशक्तिशाली, संपन्न और समर्थ बने। राष्ट्र का जीवन आध्यात्मिकता के आधार पर खड़ा हो और भौतिक क्षेत्र में भी समृद्धि के उच्च शिखरों तक पहुंचे। राष्ट्र सबल, प्रबल और विश्व में सम्मानित हो। संघ की स्थापना का उद्देश्य कभी भी स्वयं को बड़ा करना नहीं रहा। संस्थापक परम पूजनीय डॉक्टर साहब सदैव कहते थे कि हमारा ध्येय संघ को बड़ा करना नहीं है, बल्कि राष्ट्र को महान बनाना है। राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति ही हमारे लिए सर्वोपरि है।

अब प्रश्न उठता है साधनों का। संसार में चीन और अमेरिका जैसे कई राष्ट्र शक्तिशाली हैं। अतीत में भी अनेक समाजों ने अपने साम्राज्य खड़े किए, लेकिन उनका स्वरूप हमारे लिए प्रेरणास्रोत नहीं है। हमारे लिए वास्तविक साधन है- पवित्र हिंदू धर्म, उसकी संस्कृति और समाज का संरक्षण। यही मार्ग हमारे लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक है। हमारा लक्ष्य है कि धर्म और संस्कृति के आधार पर एक संस्कारी समाज का निर्माण किया जाए। ऐसा समाज, जो गुणवान, शक्तिशाली हो और राष्ट्र के परम वैभव का मार्ग प्रशस्त करे। यही लक्ष्य हमारी प्रार्थना में प्रतिदिन स्मरण किया जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग छल, कपट या अन्याय से होकर नहीं जाता। आज विश्व की अनेक शक्तियां षड्यंत्र और छल-कपट से कार्य करती हैं, पर हमारा मार्ग ऐसा नहीं हो सकता। हमारा मार्ग धर्म, संस्कृति और समाज के संरक्षण का है। धर्म का अर्थ केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि आचरण का मार्ग है। महावीर, गौतम बुद्ध और हमारे संतों ने यही शिक्षा दी कि जीवन में सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा और संयम आवश्यक हैं। संस्कृति का अर्थ केवल कला-संगीत नहीं, बल्कि मातृभक्ति, पवित्रता, दूसरों के सुख-दुख की चिंता और प्रकृति के प्रति सम्मान है। समाज की स्थिरता और राष्ट्र की उन्नति का मार्ग यही है।

संघ के संस्थापक परम पूजनीय डॉक्टर साहब ने यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता और सामाजिक सुधार आवश्यक हैं, लेकिन समाज की समझ और चेतना को बदलना और मजबूत करना इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों के संघर्ष में कई बार विजयी हुए, लेकिन यह विजय स्थायी नहीं रही क्योंकि समाज का जीवन तारतम्य और संगठन के धागों से जुड़ा नहीं था।

उन्हाेंने कहा कि आत्मविश्वास, क्रोध पर विजय पाने की आकांक्षा और एक-दूसरे के लिए जीने का भाव यही वह मूल विचार हैं जो हमें जाति, धर्म और भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुट करता है। सभी भारत माता की संतान हैं और सगे भाई की तरह जीवन जी सकते हैं। उन्होंने कहा कि संघ की यात्रा की शुरुआत 1936 में हुई, लेकिन वास्तविक कार्य 1938 में आरंभ हुआ। पहले कार्यकर्ता रिक्शावाले और छोटे व्यवसायी थे, और आसपास के अनेक प्रांतों से लोग इसमें सम्मिलित हुए। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय संघ ने विभाजन और समाज में व्याप्त समस्याओं के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा और लगभग 70 हजार कार्यकर्ता जेल में बंद किए गए। 1975 के आपातकाल में भी संघ के कई स्वयंसेवक जेल में रहे। लेकिन मन में कभी निराशा के भाव नहीं आए।

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(Udaipur Kiran)

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