

साल बोरर रोग पर वन विभाग सतर्क, अमरकंटक क्षेत्र में विशेष निगरानी के निर्देश
अनूपपुर , 27 नवंबर (Udaipur Kiran) । मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में स्थित मां नर्मदा की पवित्र उद्गम स्थली अमरकंटक इन दिनों एक बार फिर पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। घने वनों और हरियाली से आच्छादित यह क्षेत्र साल बोरर नामक कीट संक्रमण की चपेट में आने लगा है।
उल्लेखनीय है कि हिस की पूर्व रिपोर्ट में बताया गया था कि साल बोरर के प्रकोप से हजारों साल वृक्ष सूखकर गिरने लगे हैं, जो अमरकंटक के वनों समेत पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन के लिए खतरे की घंटी है। इस स्थिति पर संत समाज ने भी गहरी चिंता जताई थी, जिसके बाद अनूपपुर वन मंडल ने इस संबंध में विस्तृत प्रतिवेदन तैयार कर उच्चाधिकारियों को भेजा था। प्रतिवेदन पर कार्रवाई करते हुए प्रधान मुख्य वन संरक्षक ने राज्य वन अनुसंधान संस्थान और भारतीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जबलपुर की संयुक्त वैज्ञानिक टीम को अमरकंटक क्षेत्र में जांच के लिए भेजा।
अब वैज्ञानिकों की प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया गया कि यद्यपि कई वृक्ष सीधे साल बोरर संक्रमण की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन संभावित खतरे को देखते हुए तत्काल सतर्कता और निगरानी बढ़ाने की आवश्यकता है। इसी के मद्देनजर वन विभाग ने क्षेत्रीय अधिकारियों को सतत निरीक्षण, रोग की रोकथाम के तकनीकी उपाय अपनाने और प्रभावित इलाकों का विस्तृत सर्वेक्षण करने के निर्देश दिए हैं। विभाग का कहना है कि साल वृक्ष राज्य की अत्यंत महत्वपूर्ण पारिस्थितिक धरोहर हैं और इनके संरक्षण में किसी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
इस तरह से आया है अमरकंटक के जंगल पर संकट
दरअसल, साल बोरर कीट गुबरैला प्रजाति का एक अत्यंत विनाशकारी कीट है। बारिश शुरू होते ही यह जमीन से बाहर निकलता है और समागम करता है। मादा कीट एक सप्ताह के भीतर जीवित या मृत साल वृक्षों की छाल और तनों में बनी दरारों में अंडे देती है। कुछ ही दिनों में निकले लार्वा तने की लकड़ी को भीतर से खाते हुए केंद्र तक पहुँच जाते हैं। यह अवस्था गर्मियों तक जारी रहती है। इसके बाद यह लार्वा तने में सुराख बनाकर वहीं प्यूपा बन जाते हैं और एक महीने बाद अपरिपक्व गुबरैले के रूप में विकसित होते हैं। मानसून के आगमन पर यह बाहर निकलते हैं, समागम करते हैं और नर कीट कुछ ही दिनों में मर जाता है, जबकि मादा कुछ सप्ताह और जीवित रहकर अंडे देती है। लगातार चलने वाली इस प्रक्रिया के कारण संक्रमित साल वृक्ष अंदर से खोखले हो जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है। यही कारण है कि बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलते ही पूरे जंगल को भारी नुकसान पहुंच सकता है और इस संकट से बचने के लिए संक्रमित पेड़ों को समय रहते हटाना जरूरी हो जाता है।
अमरकंटक क्षेत्र में लाखों की संख्या में फैले साल वृक्ष इस क्षेत्र की हरियाली, प्राकृतिक सौंदर्य और जलवायु संतुलन के प्रमुख आधार हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि साल वृक्षों की पत्तियाँ वातावरण में नमी बनाए रखती हैं, मिट्टी को कटाव से बचाती हैं और वर्षा के जल को भूमि में समाहित कर भूजल स्तर को बढ़ाती हैं। यही कारण है कि अमरकंटक की जलवायु सामान्यतः शीतल और संतुलित रहती है। साल वृक्ष अमरकंटक से निकलने वाली नर्मदा, सोन और जोहिला नदियों के जलस्रोतों की जीवनरेखा भी हैं, क्योंकि इनके आधार पर ही क्षेत्र में नमी का संरक्षण होता है। यदि साल वृक्षों का व्यापक तौर पर क्षरण होता है, तो इसका सीधा असर मध्य भारत की जलप्रणाली पर पड़ेगा।
करीब 18 से 20 वर्ष पूर्व भी अमरकंटक और उसके आसपास के क्षेत्रों में साल बोरर रोग का भीषण प्रकोप देखा गया था। उस समय वन विभाग को संक्रमण रोकने के लिए लाखों साल वृक्षों को काटना पड़ा था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि क्षेत्र का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ गया, हवा में नमी कम हो गई और कई छोटे जलस्रोत सूखने लगे थे। अब एक बार फिर वही स्थिति बनती दिख रही है, जो चिंता पैदा करती है कि यदि समय पर रोकथाम के उपाय नहीं किए गए, तो हालात भयावह हो सकते हैं।
विशेषज्ञ सलाह दे रहे हैं कि साल बोरर के संक्रमण को रोकने के लिए त्वरित फ्यूमिगेशन, जैविक कीट नियंत्रण, सतत फील्ड मॉनिटरिंग और वैज्ञानिक तरीके से संक्रमित वृक्षों की पहचान व उन्हें हटाना बेहद जरूरी है। साथ ही इस प्रक्रिया के समानांतर नए पौधारोपण की वैज्ञानिक योजना पर भी तत्काल कार्य होना चाहिए। स्थानीय नागरिकों ने भी जिला प्रशासन से अपील की है कि अमरकंटक के साल वनों की रक्षा के लिए विशेष अभियान चलाया जाए, ताकि इस प्राकृतिक धरोहर को बचाया जा सके।
(Udaipur Kiran) / राजेश शुक्ला