
औरैया, 6 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) । चंबल संग्रहालय परिवार ने महर्षि वाल्मीकि जयंती की पूर्व संध्या पर चंबल क्षेत्र के क्रांति योद्धा ‘जंगली मंगली वाल्मीकि’ को समुचित सम्मान दिए जाने की मांग की है। इस कड़ी में क्रांतिवीर जंगली मंगली का गौरवशाली स्मारक बनाने के साथ ही चंबल घाटी की शौर्य गाथाओं को सम्मान देने, क्रांति नायकों की स्मृतियों को जीवंत और संरक्षित करने, क्रांतिकारी शौर्य गाथाओं की विरासत को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने आदि मांगों को लेकर जारी जनजागरण अभियान को और तेज करने का आह्वान किया गया है।
चंबल क्षेत्र के पचनद में चंबल संग्रहालय परिवार की बैठक में वक्ताओं ने कहा कि चंबल गाथा मुहिम के तहत चंबल अंचल के स्वतंत्रता संग्राम में 1857 के चंबल के शौर्य के दो अमर प्रतीक सगे भाई जंगली-मंगली वाल्मीकि ने इतिहास में वह अध्याय जोड़ा, जो गौरवांवित करने के साथ आज भी हमें प्रेरणा देता है। चकरनगर रियासत के जननायक राजा निरंजन सिंह चौहान ने 31 मई 1857 को स्वतंत्र राज्य की घोषणा की, और पंचनद घाटी को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराया। यहीं से युद्ध की योजनाएँ बनतीं और ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने वाले अभियान चलाए जाते। अंग्रेज चाहे जालौन, ततारपुर या आगरा-हनुमंतपुरा मार्ग से आए, जननायक राजा निरंजन सिंह चौहान के कमांडर जंगली-मंगली वाल्मीकि और साथी रणबांकुरों ने हर मोर्चे पर उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया।
जननायक राजा निरंजन सिंह चौहान के सुयोग्य कमांडर जंगली-मंगली वाल्मीकि ने 1 नवंबर 1857 को शेरगढ़ युद्ध, 3 दिसंबर को इटावा पर कब्ज़े का युद्ध, और जनवरी से अप्रैल 1858 तक भोगनीपुर-कानपुर-देहात, कालपी और चरखारी की लड़ाइयों में उन्होंने साहस की मिसाल कायम की।
अचूक निशानेवाज जंगली-मंगली वाल्मीकि ने 6 सितंबर 1858 को चकरनगर युद्ध और 11 सितंबर को सहसों युद्ध में उन्होंने 22 अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारा और स्वयं वीरगति प्राप्त की। ये दोनों भाई इतिहास में दलित शौर्य के अग्रदूत कहलाए।
चंबल संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. शाह आलम राना ने उपस्थित समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि आज उनके बलिदान के 167 वर्ष बीत चुके हैं। आजाद भारत के 78 वर्ष गुजरने के बाद आज भी सत्ता के हुक्मरानों को कौन सा डर सता रहा है? स्वतंत्र भारत की कितनी सरकारें आईं और चली गईं लेकिन इन दोनों भाई क्रांतिकारियों को बिसरा दिया गया। अब इतिहास में न्याय दिलाने का समय है कि चंबल के उन गुमनाम नायकों को इतिहास में उनका हक़ मिले। उनके नाम पर राष्ट्रीय स्तर के गौरवशाली स्मारक बनें, उनकी गाथाएँ विश्वविद्यालय स्तर के पाठ्यक्रमों में आएँ, और आने वाली पीढ़ी जाने कि स्वतंत्रता की नींव चंबल की घाटियों के रक्त और साहस से सींची गई थी।
डॉ. राना ने जोर देते हुए कहा कि चंबल की भूमि जाति-धर्म की संकीर्ण दीवारों से परे, इंसाफ और इज़्जत को सबसे ऊंचा मानने वाली धरती रही है। यहां की जनता ने निरंकुश सत्ता को चुनौती दी, और जब देश पुकारा, तो अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटी। चंबल के लोगों ने हमेशा अपने ज़मीर को सर्वोच्च रखा है- यही इस क्षेत्र की सबसे बड़ी पूंजी है। अफसोस की बात है कि स्वतंत्र भारत में इतिहास का ईमानदार उत्खनन नहीं हुआ। जिन क्रांतिवीरों ने अपनी जान देकर देश को आज़ादी का रास्ता दिखाया, उन्हें डकैत कहकर बदनाम किया गया। चंबल की अस्मिता को कुचला गया, और उसकी मिट्टी को अपराध का पर्याय बना दिया गया। हालांकि चंबल संग्रहालय परिवार ने अपने लड़ाका पुरखे राष्ट्रनायक जंगली-मंगली वाल्मीकि की स्मृतियों को चंबल जनसंसद, मशाल सलामी, पंचनद दीप पर्व, 151 फिट तिरंगे की सलामी आदि आयोजनों के जरिये जिंदा रखा है।
कार्यक्रम में चंबल संग्रहालय परिवार से जुड़े प्रकाशचंद बाथम, चन्द्रोदय सिंह, अनीस खान, राधा कृष्ण शंखवार, रामबरन सिंह, रामवीर सिंह, रतन सिंह, जयवीर सिंह शंखवार,अवनीश पाल, सत्यम सिकरवार, विजय बहादुर, चंद्रवीर सिंह चौहान, राज कोरी, बादल, जयेन्द्र चौहान, हरिराम, बलवीर, सत्यवीर आदि कई प्रमुख लोग मौजूद रहे।
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(Udaipur Kiran) कुमार
