
कोलकाता, 30 सितंबर (Udaipur Kiran News) । दुर्गा पूजा की धूम पश्चिम बंगाल के हर कोने में गूंज रही है। हालांकि दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है लेकिन इस भव्य पर्व का असली अहसास तब होता है जब ढाक (विशेष प्रकार के ढ़ोल) की थाप पूरे वातावरण को झंकृत कर देती है। इस साल भी पंचमी के दिन से ही राज्य के ग्रामीण इलाकों से ढाकी (ढाक बजाने वाले) बड़ी संख्या में कोलकाता के पूजा पंडालों में पहुंच चुके हैं। ढाक की थाप में देवी दुर्गा की आराधना, स्वागत और उत्सव का उल्लास निहित है। हालांकि पहले की तुलना में ढाकियों की संख्या कम होती जा रही है। तकनीक का हाथ पकड़ कर तेजी से विकसित होते जा रहे वाद्य यंत्रों के साथ ये ढाकिए भी अब धीरे-धीरे विरासत की यादें बनकर सिमटते जा रहे हैंं। ये ढाकिए बर्दवान, मुर्शिदाबाद, बांकुड़ा, मालदा, पुरुलिया और अन्य जिलों से लंबा सफर तय कर यहां पहुंचे हैं। षष्ठी से लेकर विजयादशमी तक यही कलाकार पूरे राज्य की दुर्गा पूजा को अपने सुरों से जीवंत बनाते हैं।
ढाक की अपनी अलग पहचान है। यह सिर्फ एक वाद्ययंत्र नहीं, बल्कि बंगाल की सांस्कृतिक धड़कन है। लगभग 2.5 से तीन फुट लंबे और एक से 1.5 फुट चौड़े इन ढोलों को खास तरह से सजाया जाता है। एक ओर पक्षियों के पंखों से इनकी खूबसूरती बढ़ाई जाती है, जबकि दूसरी ओर ढाकिए की थाप से ऐसी गूंज निकलती है कि वातावरण में मां दुर्गा के स्वागत की ऊर्जा फैल जाती है। पूजा पंडालों में जब ये थाप बजती है तो भक्ति, आनंद और उत्सव का वातावरण अपने चरम पर पहुंच जाता है।
षष्ठी के दिन से ही पूरे राज्य के हजारों पूजा पंडालों में ढाक की ताल गूंज रही है। इन दिनों में कमाए गए पैसे से ढाकिए सालभर का घर-गृहस्थी का खर्च चलाते हैं। हालांकि, यह परंपरा अब चुनौतियों से भी घिरती जा रही है।
कुछ ढाकियों ने (Udaipur Kiran) से बातचीत में अपनी पीड़ा साझा की। उनका कहना है कि पहले पूजा समितियां उन्हें खुले दिल से मानदेय देती थीं। मांगने की भी नौबत नहीं आती थी। आयोजक उनके हुनर को सम्मानपूर्वक सराहते थे लेकिन अब हालात बदल गए हैं। कई बार आयोजक उनसे मोलभाव करने लगते हैं। अगर ढाकिए मनमुताबिक रकम पर तैयार नहीं होते तो उन्हें लौटा दिया जाता है। कुछ ढाकियों को तो खाली हाथ अपने गांव लौट जाना पड़ता है।
इन हालात से परेशान होकर ढाकियों ने राज्य सरकार से बार-बार अपील की है कि उन्हें लोक शिल्पी का दर्जा दिया जाए और मासिक भत्ता दिया जाए, ताकि उनकी कला और आजीविका दोनों सुरक्षित रह सके। मगर अब तक उनकी यह मांग अनसुनी रह गई है।
फिर भी, कठिनाइयों के बावजूद ढाकियों का उत्साह और निष्ठा कम नहीं हुई है। हालांकि अच्छी बात यह है कि अभी तक बंगाल के दुर्गा पूजा में ढ़ाक की अहमियत बरकरार है और इसकी आवाज के बिना दुर्गा पूजा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
पंडालों में जुटे ढाकियों का यह रेला बताता है कि बंगाल में दुर्गा पूजा सिर्फ धार्मिक आस्था और आराधना ही नहीं, बल्कि लोक कलाकारों, परंपराओं और समाज की संवेत भावनाओं का भी संगम है।
(Udaipur Kiran) / ओम पराशर
