
नई दिल्ली, 11 सितंबर (Udaipur Kiran) । उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु की ओर से राष्ट्रपति और राज्यपालों के समक्ष विधेयकों को प्रस्तुत करने पर संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक विकल्पों के रेफरेंस पर फैसला सुरक्षित रख लिया है। उच्चतम न्यायालय की संविधान बेंच ने इस मामले पर कुल 10 दिन सुनवाई की। संविधान बेंच में मुख्य न्यायाधीश के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस एएस चंदुरकर और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल हैं।
न्यायालय ने सुनवाई के दाैरान गुरुवार काे साफ किया कि वो तमिलनाडु राज्यपाल के फैसले की अपील नहीं सुन रहे हैं, बल्कि वे राष्ट्रपति की ओर से पूछे गए संवैधानिक सवालों का जवाब देंगे। उच्चतम न्यायालय ने ये बातें तब कही, जब केंद्र सरकार ने मांग की कि तमिलनाडु राज्यपाल वाले फैसले को निरस्त किया जाए। इस मामले की सुनवाई के दौरान तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने राष्ट्रपति के रेफरेंस पर सवाल उठाते हुए कहा कि इन सवालों का जवाब तमिलनाडु राज्यपाल वाले फैसले में मिल गया है।
सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि अगर राज्यपाल लंबे समय तक विथेयक को लंबित रखते हैं, तो उस पर क्या होना चाहिए। तब केंद्र सरकार की ओर से तब अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि ऐसी विकट स्थिति में भी न्यायालय राज्यपाल का काम अपने हाथ में नहीं ले सकती और विधेयकों पर सहमति मानने का फैसला नहीं दे सकती है। सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने ये भी कहा था कि विधानसभा की ओर से पारित विधेयकों पर सहमति में देरी के कुछ खास मौकों की छोड़कर राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए सहमति की टाइमलाइन तय करने के फैसले को सही नहीं ठहाराया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार की ओर से दिए गए इस आंकड़े पर एतराज जताया था कि 1970 के बाद से अब तक केवल 20 विधेयक ऐसे आये हैं जिसे राज्यपालों की ओर से रोका गया। कोर्ट ने कहा था कि हमने पहले ही दूसरे पक्षकार को कोई भी आंकड़ा देने से मना किया है। मेहता ने कहा था कि केंद्र सरकार राज्यपालों की ओर से विधेयकों को लंबित रखने की पक्षधर नहीं है। लेकिन किसी भी तरह का टाइमलाइन तय करना इसका समाधान नहीं है।
सुनवाई के दौरान कर्नाटक सरकार की ओर से कहा गया था कि राज्यपाल बस नाम मात्र के प्रमुख होते हैं और वो सिर्फ केंद्र और राज्यों के मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं। केरल सरकार की ओर से कहा गया था कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक की मंजूरी देने से इनकार करते हैं, तो राज्य मंत्रिपरिषद उन्हें उस पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य कर सकती है।
पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से कहा गया था कि राज्यपाल विधेयकों की विधायी क्षमता को नहीं परख सकते। पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा था कि आजादी के बाद से शायद ही ऐसा कोई मौका आया हो जब राष्ट्रपति ने संसद की ओर से पारित किसी विधेयक को जनता की इच्छा के कारण रोका हो। हिमाचल प्रदेश की ओर से कहा गया था कि संविधान में राज्यपाल के विवेकाधिकार का कोई प्रावधान नहीं है। राज्यपाल को राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होती है, लेकिन राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह मानना जरुरी नहीं होता है।
राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। राष्ट्रपति को किसी भी कानूनी या संवैधानिक मसले पर उच्चतम न्यायालय की सलाह लेने का अधिकार है।
(Udaipur Kiran) /संजय
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(Udaipur Kiran) / अमरेश द्विवेदी
