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ओली सरकार को झटका, राष्ट्रपति का संवैधानिक परिषद विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इनकार

राष्ट्रपति रामचन्द्र पौडेल

काठमांडू, 24 जुलाई (Udaipur Kiran) । प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सरकार को आज उस समय तगड़ा झटका लगा जब राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने संवैधानिक परिषद (कर्तव्य, कार्य, अधिकार और प्रक्रिया) अधिनियम 2006 से संबंधित संशोधन विधेयक को पुनर्विचार के लिए प्रतिनिधि सभा को वापस कर दिया है।

राष्ट्रपति के प्रेस सलाहकार किरण पोखरेल के अनुसार, विधेयक को आगे की समीक्षा के लिए गुरुवार को वापस भेज दिया गया था। पोखरेल ने कहा कि राष्ट्रपति ने विधेयक को मूल सदन को यह कहते हुए वापस कर दिया कि प्रस्तावित संशोधन संविधान की भावना और सिद्धांतों, लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों तथा अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक प्रथाओं के विपरीत है। राष्ट्रपति की तरफ से यह कदम संविधान के अनुच्छेद 113 (3) के तहत उठाया गया है।

प्रतिनिधि सभा और राष्ट्रीय सभा द्वारा पारित संशोधन विधेयक 15 जुलाई को प्रमाणीकरण के लिए राष्ट्रपति कार्यालय पहुंचा था।एक सप्ताह की लंबी समीक्षा के बाद, राष्ट्रपति पौडेल ने इस पर हस्ताक्षर नहीं करने का विकल्प चुना और इसे संसद के निचले सदन को वापस कर दिया।

नेपाल के संविधान की अनुच्छेद 113 राष्ट्रपति को किसी भी विधेयक (धन बिलों को छोड़कर) को यदि वह इसे पुनर्विचार के लिए आवश्यक समझते है तो 15 दिनों के भीतर मूल सदन को वापस भेजने की अनुमति देता है।

प्रधानमंत्री की पहल पर सदन से पारित हुए इस विधेयक को लेकर सत्तारूढ़ दल नेपाली कांग्रेस का एक बड़ा खेमा इसके विपक्ष में दिखा। नेपाली कांग्रेस ने चिंता व्यक्त की थी कि निचले सदन द्वारा पारित संशोधन में नेशनल असेंबली का संशोधन लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है और इसके पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है।

नेपाल के संविधान में छह सदस्यीय संवैधानिक परिषद की परिकल्पना की गई है जिसमें प्रधानमंत्री, प्रतिनिधि सभा के स्पीकर, डिप्टी स्पीकर, राष्ट्रीय सभा का अध्यक्ष, सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश और प्रमुख प्रतिपक्षी दल का नेता शामिल है। प्रधानमंत्री परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं।

लौटाए गए विधेयक में एक प्रावधान शामिल था जिसमें कहा गया था कि संवैधानिक निकायों में नियुक्तियां परिषद के भीतर सर्वसम्मति के माध्यम से की जानी चाहिए। यदि सर्वसम्मति नहीं बन पाती है, तो निर्णय बहुमत से लिए जा सकते हैं जिसमें प्रधानमंत्री (अध्यक्ष के रूप में) और वर्तमान में सेवारत सदस्यों का कम से कम 50 प्रतिशत शामिल है।

इसमें संशोधन करते हुए सभी राजनैतिक और संवैधानिक नियुक्ति करते समय सिर्फ प्रधानमंत्री और कोई भी एक सदस्य चाहे तो इस परिषद के तरफ से कोई फैसला ले सकते हैं। गठबंधन बचाने के लिए तो दोनों सदनों से इसे पारित कर दिया गया लेकिन ओली की नीयत को देखते हुए कांग्रेसी सांसदों और नेताओं ने ही राष्ट्रपति पर दबाव बना कर उसे अस्वीकृत करवाया है।

इस समय संवैधानिक परिषद में प्रधानमंत्री ओली अल्पमत में हैं। उनके अलावा सिर्फ प्रतिनिधि सभा का स्पीकर ही उनके पक्ष में है, बाकी डिप्टी स्पीकर, राष्ट्रीय सभा के अध्यक्ष, प्रमुख विपक्षी दल के नेता सभी उनके विरोधी ही हैं। प्रधान्यायाधीश भी हर निर्णय में प्रधानमंत्री का साथ देंगे ही यह आवश्यक नहीं है।

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(Udaipur Kiran) / पंकज दास

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