

कानपुर, 03 जुलाई ( हि. स.)। खरीफ मौसम में तिलहनी फसलों के अंतर्गत तिल की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। तिल की बुवाई का सर्वोत्तम समय जुलाई के मध्य तक करते हैं। उत्तर प्रदेश में तिल का क्षेत्रफल लगभग 4,17,4 35 हेक्टेयर तथा उत्पादन 99,767 मीट्रिक टन है। पूरे देश में (राष्ट्रीय स्तर) पर तिल के उत्पादन में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 25 प्रतिशत है। यह बातें गुरूवार को चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के तिलहन अनुभाग के प्रभारी डॉक्टर महक सिंह ने कही।
तिलहन अनुभाग के प्रभारी डॉक्टर महक सिंह ने तिल के तेल के महत्व के बारे में बताया कि तिल में मौजूद लवण जैसे कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम आदि मानव के दिल की मांसपेशियों को सक्रिय रखने में मदद करते हैं। उन्होंने बताया कि तिल में डाइटरी प्रोटीन और एमिनो एसिड मौजूद होते हैं, जो बच्चों की हड्डियों के विकास को बढ़ावा देते हैं तथा इसके तेल से त्वचा को जरूरी पोषण मिलता है।
डॉक्टर सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश में तिल की खेती के लिए नवीनतम प्रजातियां जैसे सावित्री, गुजरात तिल 10, गुजरात तिल 20, टाइप 78, शेखर, प्रगति, तरुण, आरटी 351,आरटी 346 एवं आर टी 372 प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि तिल का तीन से चार किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। तिल की बुवाई के लिए ऐसे खेत का चयन करना चाहिए जहां पर पानी का जलभराव न हो।
उन्होंने कहा कि जुलाई के द्वितीय पखवारे तक तिल की बुवाई हो जाने से उत्पादन अच्छा होता है। साथ ही तिल की बुवाई करते समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर तथा बीज की गहराई तीन से चार सेंटीमीटर पर अवश्य रखें।
उन्होंने बताया कि यदि किसान तिल की बुवाई करते समय फोरेट 10 जी, 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से दवा का प्रयोग करते हैं तो तिल में फैलोडी रोग की संभावना कम रहती है।
मृदा वैज्ञानिक डॉ. खलील खान ने बताया कि तिल की फसल के लिए 30 किलोग्राम नत्रजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश एवं 25 किलोग्राम गंधक (सल्फर) प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से मात्रात्मक और गुणात्मक फसलोत्पादन में वृद्धि होती है।
(Udaipur Kiran) / मो0 महमूद
