

उदयपुर, 20 जून (Udaipur Kiran) । ऐतिहासिक हल्दीघाटी विजय दिवस के 450वें वर्ष में प्रवेश पर उदयपुर के प्रताप गौरव केन्द्र राष्ट्रीय तीर्थ के तत्वावधान में 18 से 25 जून तक चल रहे हल्दीघाटी विजय सार्द्ध चतु: शती समारोह के प्रथम सोपान के तहत मेवाड़ लघु चित्रकला व पुरा लिपि कार्यशाला में प्रतिभागियों का उत्साह देखते ही बन रहा है। कार्यशाला में पठन-पाठन-प्रशिक्षण-प्रात्यक्षिक के साथ विषय विशेषज्ञों से चर्चा का दौर भी जारी है।
कार्यशाला के तहत शुक्रवार को प्रताप गौरव केन्द्र के पद्मिनी सभागार में ‘महाराणा प्रताप कालीन मेवाड़ लघुचित्र शैली का स्वरूप’ विषयक कला चर्चा का आयोजन हुआ। वक्ता के रूप में केन्द्र के निदेशक अनुराग सक्सेना ने कहा कि हम प्रताप को एक महान योद्धा के रूप में जानते हैं, परंतु उनका कला-प्रेम व चित्रकला संवर्द्धन में योगदान कम चर्चित है। इस पर शोध की अत्यधिक आवश्यकता है।
उन्होंने बताया कि महाराणा प्रताप के समय चावण्ड शैली का विकास हुआ, जो राजस्थानी चित्रकला की सबसे प्राचीन आधारशिला मानी जाती है। इस शैली में ब्रह्मा-सरस्वती जैसे विषयों पर चित्रांकन हुआ और रागमाला की शुरुआत इसी काल से मानी जाती है, जो अमरसिंह के समय तक चलती रही। सक्सेना ने बताया कि प्रारंभिक चित्रों में लाल व पीले रंगों का अधिक उपयोग हुआ, जबकि नीला व हरा रंग अपेक्षाकृत कम था। रंग संयोजन अत्यंत सुंदर व सुसंगत है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि महाराणा प्रताप ने कृषि सुधार हेतु ‘विश्ववल्लभ’जैसे ग्रंथों की रचना भी करवाई।
राजस्थान की सभी चित्र शैलियों की जननी है मेवाड़ शैली – प्रो. युगल किशोर
-इससे पूर्व, ‘महाराणा राज सिंह कला के संदर्भ में’ हुई कला चर्चा में राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा के सेवानिवृत्त आचार्य एवं वरिष्ठ कला समीक्षक प्रो. युगल किशोर शर्मा ने कहा कि मेवाड़ लघुचित्र शैली केवल एक चित्र प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राजस्थानी चित्रकला की मूल धारा है। अपभ्रंश शैली की ‘परली आंख का अभाव’और मेवाड़ की स्थानीय चित्र परंपराओं के समन्वय से जन्मी यह शैली न केवल ऐतिहासिक है, अपितु समस्त राजस्थान की चित्रशैलियों की जननी मानी जाती है।
प्रो. शर्मा ने बताया कि इस शैली का सर्वप्रथम प्रमाण श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्ण में मिलता है। इसके पश्चात गीत गोविंद, भागवत पुराण, रागमाला, आर्ष रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों पर आधारित चित्रों में इसकी समृद्ध छाप मिलती है। उन्होंने कहा कि महाराणा राजसिंह के काल में श्रीनाथजी को मेवाड़ लाकर नाथद्वारा में प्रतिष्ठित किया गया, जिससे नाथद्वारा शैली का उद्भव हुआ। यह शैली मेवाड़ लघुचित्र की ही एक उपशैली मानी जाती है, जिसमें पिछवाड़ा चित्रांकन प्रमुख है। इन चित्रों में कृष्णभक्ति के साथ-साथ रंग संयोजन, बिंब-प्रतीकों की शुद्धता और तकनीकी उत्कृष्टता भी दृष्टव्य होती है।
कार्यशाला में चित्रों की विषयवस्तु, रंग योजना, संयोजन तथा चित्रांकन की बारीक तकनीकों पर भी गहन चर्चा की गई। कार्यशाला संयोजक प्रो. रामसिंह भाटी ने बताया कि कार्यशाला में वरिष्ठ एवं युवा चित्रकार सक्रिय सहभागिता निभा रहे हैं। इनमें आनंदी लाल शर्मा, अशोक शर्मा, छोटू लाल, शंकर शर्मा, पुष्कर लोहार, गणेश गौड़, गोविंद बल्लभ शर्मा, जगदीश यादव, खूबीराम शर्मा, ललित सोनी, मंदीप शर्मा, मदनलाल शर्मा, नरोत्तम कुमावत, ओमप्रकाश, प्रमोद सोनी, राधेश्याम स्वर्णकार, राजेश सोनी, रामचंद्र शर्मा, संदीप शर्मा, श्यामसुंदर शर्मा आदि शामिल हैं।
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(Udaipur Kiran) / सुनीता
