Uttar Pradesh

शंकराचार्य का दर्शन बहुआयामी, अत्यंत व्यापक और समावेशी: प्रो. सत्यकाम

सम्बोधित करते प्रो आनंद शंकर सिंह

-समकालीन संकट में शंकराचार्य दर्शन की सार्थकता पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ

प्रयागराज, 21 नवम्बर (Udaipur Kiran) । ईश्वर शरण पीजी कॉलेज में शुक्रवार को भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित और महाविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में आयोजित ‘‘समकालीन सांस्कृतिक और सामाजिक प्रसंग में शंकराचार्य के दर्शन की सार्थकता’’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ।

मुख्य अतिथि उ.प्र.राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज के कुलपति प्रो.सत्यकाम ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा व्यवस्था का एकल विषयी से बहुविषयी, पारविषयी, अन्तर्विषयी पाठ्यचर्या की ओर संक्रमण है। जिससे विद्यार्थियों का बहुआयामी विकास सम्भव हो। इसी प्रकार शंकराचार्य का दर्शन भी बहुआयामी, अत्यन्त व्यापक और समावेशी है, जिसे मात्र दर्शनशास्त्र तक सीमित रखना उस भारतीय ज्ञान परम्परा की उपेक्षा होगी, जिसने भारत को विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया था। अतः आज समस्त शिक्षार्थियों को विचार मंथन करना चाहिए कि शंकराचार्य के दर्शन का बहुविषयी, पारविषयी, अन्तर्विषयी पाठ्यचर्या में समावेशन कैसे हो?

विशिष्ट वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पूर्वी उप्र के प्रचार प्रमुख सुभाष ने कहा कि जिसने आठ वर्ष की अवस्था में वेदों का अनुशीलन, बारह वर्ष में समस्त शास्त्रों का ज्ञान, सोलह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों पर भाष्य लिखा और बत्तीस वर्ष की अवस्था में देहत्याग किया, ऐसे अनन्यतम व्यक्तित्व हैं आचार्य शंकर। उनका दर्शन इतना सूक्ष्म और व्यापक है, जिसने परवर्ती भारतीय मानस को प्रभावित किया, जिसे हम कबीर, तुलसी आदि के चिंतन में अनुभूत कर सकते हैं।

उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के दर्शन शास्त्र विभाग के आचार्य डॉ. आनन्द मिश्रा ने कहा कि जिस प्रकार अद्वैत दर्शन ही समस्त भारतीय दर्शन का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। उसी प्रकार आचार्य शंकर ही मात्र अद्वैतवाद का प्रतिनिधित्व नहीं करते। समकालीन परिप्रेक्ष्य में परवर्ती दार्शनिकों जैसे अरविन्द आदि ने अपनी पुस्तक लाइफ डिवाइन में शंकराचार्य के दर्शन से वैमत्य प्रस्तुत किया। यह प्रश्न भी विचारणीय है कि यदि अद्वैत वाद को ही स्वीकार किया जाये तो बहु संस्कृतिवाद और धार्मिक बहुलवाद की व्याख्या कैसे संभव होगी। परन्तु स्पष्ट है कि समस्त बहुलवादी चिंतन विभेदपरक है और अद्वैतवादी चिंतन स्वभावतः समावेशी।

अध्यक्षता करते हुए महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. आनंद शंकर सिंह ने कहा कि भारतीय परम्परा में धर्म को ही मूल तत्व माना गया है। वैदिक ऋषियों ने धर्म की व्याख्या भौतिक और आध्यात्मिक अभ्युदय के आधार पर की, जो द्वैतभाव पर आश्रित है, जबकि आचार्य शंकर का दर्शन एकत्व और सामंजस्य का दर्शन है, जो भौतिकता और अध्यात्म दोनों को ही संयोजित या एकीकृत करता है, जिसके आधार पर वे चार मठों की स्थापना द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण की नींव प्रतिष्ठित करते हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दर्शन शास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.ऋषिकांत पाण्डेय ने स्पष्ट किया कि आज विज्ञान-प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास और तत्जनित सुख सुविधाएं अपने चरम पर हैं,फिर भी आज का मनुष्य दुःखी, अशान्त, परेशान और निराश है। इसका मूल कारण एक दिशीय विकास है। एक दिशीय विकास मनुष्य में व्यतिक्रम उत्पन्न करता है और व्यतिक्रम से भेद दृष्टि उत्पन्न होती है और यही भेद दृष्टि मनुष्य के दुःख, अशान्ति, परेशानी और निराशा का मूल कारण है। इसका समाधान आचार्य शंकर के दर्शन में निहित है, जो व्यतिक्रम से साम्यावस्था की स्थापना का दर्शन है।

उद्घाटन सत्र का स्वागत वक्तव्य महाविद्यालय दर्शन शास्त्र विभाग की संयोजिका प्रो.अमिता पांडेय ने प्रस्तुत किया। संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन, कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुतीकरण और सत्र संचालन डॉ. शिखा श्रीवास्तव ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. रश्मि जैन ने किया।

(Udaipur Kiran) / विद्याकांत मिश्र