
भोपाल, 16 नवंबर (Udaipur Kiran) । दुनिया में हिन्दुओं को लेकर अनेक प्रकार के विचार, शंकाएं और पूर्वाग्रह लगातार प्रस्तुत होते रहे हैं, लेकिन हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा कोई नया राजनीतिक विमर्श नहीं है। यह वह विचार है, जिसको प्रभावी रूप से डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में संघ की स्थापना के साथ रखा था। जब किसी ने हिन्दू राष्ट्र की बात करने वालों को ‘पागल’ कहा। तब डॉ. हेडगेवार ने दृढ़ता से कहा था, “यह राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र था, है और रहेगा। इस भूमि पर हिन्दू रक्त की एक बूंद भी जब तक मौजूद है, तब तक यह देश हिन्दू राष्ट्र रहेगा। ”मुक्तिबोध का तर्क था कि यदि इतिहास को उसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संदर्भों में पढ़ा जाए, तो भारत अपनी प्रकृति में सदा से सांस्कृतिक रूप से एकजुट रहा है, जिसे वे हिन्दू राष्ट्र की मूल भावना कहते हैं।
उक्त बातें मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रविवार को ‘मध्य प्रदेश सुशासन संवाद 2.0’ के मंच पर ‘संघ संवाद’ विषय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मध्य क्षेत्र के सह-कार्यवाह हेमंत मुक्तिबोध ने कहीं। दरअसल् इस दौरान उन्होंने वह दृष्टि साझा की, जिसने पिछले सौ वर्षों में संघ और इसकी विचारधारा को दिशा दी है। उनके संवाद में संघ की वैचारिक नींव की झलक के साथ ही भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रीयचेतना और आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच सेतु का विस्तार देखने को मिला।
‘हिन्दू’ की संघ परिभाषा संकीर्ण नहीं
संघ पर हमेशा यह प्रश्न उठता रहा है कि ‘हिन्दू’ किसे माना जाए? इसके जवाब में मुक्तिबोध ने इस पर स्पष्ट कहा कि संघ के लिए हिन्दू की पहचान बाहरी आचरण, पूजा-पद्धति, भाषा, तिलक या धार्मिक चिन्हों से नहीं होती। उनके अनुसार, “जो इस देश को अपनी मातृभूमि मानता है, इसकी संस्कृति का सम्मान करता है, इसके मूल्यों और परंपराओं से प्रेम करता है, वह हिन्दू है। उसकी उपासना, मजहब और पंथ चाहे जो हों।” उन्होंने तर्क दिया कि यह परिभाषा किसी संप्रदाय, धर्म या समूह को सीमित नहीं करती है, यह तो एक समावेशी सांस्कृतिक अवधारणा को दर्शाती है। उनके अनुसार हिन्दू एक मूल्य-आधारित संस्कृति का नाम है, जो वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसी उदार धारणाओं पर आधारित है। मुझे ऐसा लगता है कि इससे बड़ी हिन्दुत्व की कोई और परिभाषा नहीं हो सकती। हिन्दू एक मूल्य आधारित संस्कृति है। और राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई है और इसके अंदर राजनैतिक, प्रशासनिक इकाइयां हो सकती हैं। जिन सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर समाज की पहचान होती है वो राष्ट्र है।
इनका कहना रहा, संविधान की प्रस्तावना में भी कहा गया है कि ‘वी द पीपुल ऑफ इंडिया’ इसमें इंडिया से पहले पीपुल आता है। इसलिए लोगों से राष्ट्र बनता है। इसलिए हम ये कह सकते हैं कि आध्यात्मिक आधार पर राष्ट्र की संरचना हुई। हमारे देश में प्राचीन काल में कहा गया है कि ऋषियों की भद्र इच्छाओं से राष्ट्र की संकल्पना का जन्म हुआ। ये भद्र इच्छाएं सर्वे भवन्तु सुखिन:, “अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥” , इस तरह की अनेक भद्र इच्छाओं की पूर्ति के लिए राष्ट्र की संकल्पना को प्रतिपादित किया गया। ये सांस्कृतिक आधार और आध्यात्मिक अधिष्ठान है। और इसे ही हम लोग हिन्दू या हिन्दुत्व कहते हैं। इसी बात को लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं।
राष्ट्र की आध्यात्मिक संरचना और भारतीय दृष्टि
जब उनसे संवाद में पत्रकार द्वारा पूछा गया कि भारत की बात कहने और उसे समझाने में संघ कितना सफल हुआ है? इसके उत्तर में आपका कहना था कि संघ ने शुरू से ही कहा है कि हम कोई समाज के अंदर अलग संगठन नहीं हैं और न ही हम बंधकर रहना चाहते हैं। हम तो चाहते हैं कि जितनी जल्दी हो सके हम अपना काम खत्म करके समाज में ही विलीन हो जाएं। समाज को ही एक संगठित अवस्था प्रदान करना ही संघ का उद्देश्य है।उनके अनुसार, राष्ट्र पहले ‘जन’ से बनता है, फिर प्रशासनिक संरचनाएं आती हैं।
इस दौरान उन्होंने चश्मे का उदाहरण देकर समझाया कि चश्मे का दोष दूर होते ही यथार्थ का जैसे ज्ञान होता है, वैसा ही परिवर्तन आज हमें हर क्षेत्र में दिखाई देता है। समाज में पहले बाहरी चश्मा लगाया गया था, जिससे भारत की संस्कृति को संदेह के नजरिए से देखा जाता था लेकिन समय के साथ लोगों ने खुद सोचना शुरू किया कि उनकी अंतरात्मा जो कह रही है, वह सही है या बाहरी दुनिया का दिखाया हुआ? उनके शब्दों में “जब लोगों ने अंतर्दृष्टि को अपनाया तो उन्हें पता चला कि बाहरी दृष्टि ही त्रुटिपूर्ण थी।” बहुत कुछ बदलाव सकारात्मक दिशा में आया है, हम किसी को अपना शत्रु नहीं मानते, सभी हमारे अपने भारतवासी हैं।
उन्होने कहा, संघ का लक्ष्य समाज को संगठित करना है, न कि एक अलग इकाई बनकर रह जाना। मुक्तिबोध ने साफ कहा कि संघ चाहता है कि समाज इतना संगठित हो जाए कि संघ स्वयं समाज में विलीन हो जाए।
आरोपों पर संघ का रुख
आरएसएस पर अक्सर राजनीतिक या वैचारिक आरोप लगाए जाते हैं। इस पर मुक्तिबोध ने कहा कि आरोप लगाना किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता है। यदि संघ को समाज से बड़ा प्रतिसाद मिलता है और इससे कुछ लोगों को पीड़ा होती है, तो वे आरोप लगा सकते हैं। आपका कहना है कि “हम तो अपने चरित्र में अहिंसावादी और मासूम संगठन हैं। आज का विरोधी भी हमारा अपना है।” उनके अनुसार, संघ का उद्देश्य किसी के विरुद्ध संघर्ष नहीं, बल्कि सकारात्मकता के साथ समाज में परिवर्तन लाना है।
‘शाखा’ है चरित्र निर्माण का केंद्र
‘संघ को समझना है तो शाखा में आइए’यह वाक्य संघ की कार्यशैली का मूल है। मुक्तिबोध ने बताया कि शाखा केवल खेल-कूद या शारीरिक प्रशिक्षण का केंद्र नहीं है, बल्कि यह चरित्र निर्माण का स्थान है। उन्होंने स्वामी विवेकानंद का उल्लेख करते हुए कहा कि शाखा ऐसे व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया है जिसे विवेकानंद ‘मैन विद कैपिटल’ कहते थे, अर्थात ऐसा मनुष्य जो चरित्र संपदा से सम्पन्न हो।
भारत के दूरस्थ, नक्सल प्रभावित या सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में संघ की बढ़ती उपस्थिति पर मुक्तिबोध ने कहा कि संघ केवल समस्या होने पर नहीं पहुंचता, बल्कि भारत के पुनर्जागरण की प्रक्रिया में हर क्षेत्र महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, “अगर देश में नक्सलवाद या अन्य चुनौतियाँ न भी हों, तब भी भारत को संघ की आवश्यकता है, क्योंकि भारत को फिर से वैभवशाली बनाने के लिए हमें वही कार्य करने होंगे, जिन्होंने कभी भारत को महान बनाया।”
प्रचार है संघ की नई दिशा
संघ पर अक्सर यह आलोचना होती है कि वह प्रचार नहीं करता। मुक्तिबोध ने स्पष्ट किया कि प्रचार से संघ का मूल चरित्र कभी प्रभावित नहीं हुआ। उन्होंने एक पुराना गीत याद दिलाया, “वृतपत्रों में नाम छपेगा… छोड़ चलो ये छुद्र भावना हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।” अर्थात संघ के लिए पद, पैसा और प्रसिद्धि कभी मूल्य नहीं रहे। किंतु सामाजिक परिस्थिति बदलने के साथ कई नकारात्मक नैरेटिव फैलाए गए। ऐसे में समाज को सच बताना आवश्यक हो गया।उन्होंने स्पष्ट किया, “हम संघ का प्रचार नहीं करते, हम समाज में हो रहे सकारात्मक बदलावों का प्रचार करते हैं।”
उल्लेखनीय है कि पांचजन्य के इस संवाद में श्री मुक्तिबोध का संवाद ‘हिन्दू राष्ट्र’ या ‘हिन्दुत्व’ की व्याख्या तक सीमित नहीं रहा, यह उस वैचारिक यात्रा का दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे संघ 100 वर्षों से आगे बढ़ा रहा है। समाज का संगठन, सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण, राष्ट्र को आध्यात्मिक आधार पर समझना, और लोगों की अंतर्दृष्टि को जागृत करना, यह वह मार्ग है जिसे मुक्तिबोध आज भी प्रासंगिक बताते हैं। सुशासन संवाद के मंच पर यह चर्चा वर्तमान राजनीति, प्रशासनिक ढांचे से जुड़ी रहने के साथ ही भारत की सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक संगठन के भविष्य का संकेत भी दे गई है ।
(Udaipur Kiran) / डॉ. मयंक चतुर्वेदी